तमिलनाडु: श्रद्धा के द्वार पर दस्तक

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पवित्र मंदिरों और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों से भरपूर तमिलनाडु को दक्षिण भारत में धार्मिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां मदुरै को भगवान शिव और महाबलीपुरम को भगवान विष्णु के वामन अवतार की कृपाभूमि मानते हैं तो दक्षिण की काशी के रूप में मशहूर कांचीपुरम को मोक्ष का सातवां द्वार कहा जाता है। श्रद्धा के केंद्र मंदिरों के धार्मिक महत्व और स्थापत्य शिल्प के अलावा यहां संग्रहालयों में ऐतिहासिक-पौराणिक संपदा का संग्रह भी बेजोड़ है। आइए चलें, पुण्य के साथ-साथ प्रकृति की सुषमा से भी भरपूर तमिल भूमि की ओर।

दक्षिण प्रवास के दौरान केरल के बाद हमारा दूसरा गंतव्य तमिलनाडु था। सांस्कृतिक संपदा के मामले में केरल और तमिलनाडु दोनों बेजोड़ हैं, पर ऊपरी तौर पर कुछ असमानताएं हैं। केरल नारियल, हाथी, बैकवाटर, समुद्रतटों, पर्वतों और हरियाली से भरा इलाका है। जबकि तमिलनाडु पवित्र मंदिरों और उनके बेजोड़ स्थापत्य शिल्प के कारण श्रद्धा के द्वार के रूप में जाना जाता है। सांस्कृतिक संपदा के मामले में तमिलनाडु इतना धनी है कि शौकीन लोग यहां घूमने में महीनों बिता दें। हमारे पास चूंकि दस दिन का ही समय था, इसलिए हमने केवल मदुरै, महाबलीपुरम और कांचीपुरम घूमना तय किया। केरल में हमारा अंतिम पड़ाव पेरियार था। वहां से मदुरै 160 किमी दूर है। चार घंटे के इस सफर के लिए दिन में चार-पांच बसें हैं। कालीमिर्च, इलायची, रबड़ और चाय बागान से होकर गुजरने वाला पेरियार-मदुरै का सड़क मार्ग प्रकृति की सुंदरता से भरा हुआ है।

एक टुकड़ा नॉस्टैल्जिया

हस्ती और नाग नाम के दो पहाड़ों के बीच बसा ‘मदुरै’ दरअसल ‘मधुरम’ शब्द का अपभ्रंश है। ढाई हजार वर्ष से अधिक का इतिहास समेटे यह शहर मीनाक्षी मंदिर के चारों तरफ कमल के आकार में बसाया गया है। मीनाक्षी मंदिर के चारों तरफ दीवार बनी है, ठीक इसी तरह मदुरै के चारों तरफ वेलिस्ट्रीट है। पेरियार से चली बस ने मदुरै में पश्चिम की वेलिस्ट्रीट से प्रवेश किया और उसी के पास स्थित बस स्टैंड पर हमें उतार दिया। बस स्टैंड के पास ही रेलवे स्टेशन भी है।

मदुरै में आकर्षण का मुख्य केंद्र मीनाक्षी मंदिर है,  इसलिए हमने तय किया कि डेरा ऐसी जगह डालें जो मंदिर के पास हो। मंदिर के आसपास घनी आबादी है और वातावरण मध्ययुगीन तथा आधुनिक सभ्यता का मिला-जुला रूप लगता है। अगले दिन सुबह हम मंदिर की ओर चले तो बीच में हमें कहीं रास्ता पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। एक ही दिशा में जाते लोगों के पदचापों और फूलों से महकता रास्ता खुद अपनी मंजिल का पता दे रहा था।

जहां पड़ीं अमृत बूंदें

किंवदंती है कि यहां प्राचीन काल में वन था, जो ‘कदम्ब वन’ नाम से जाना जाता था। एक बार धनंजय नाम के किसान ने यहां एक वृक्ष के नीचे बैठे इंद्र देवता को स्वयंभू की पूजा करते देखा। उसने यह बात राजा कुलशेखर पांडु को बताई। राजा वन गए और उस लिंग के चारों तरफ के स्थान को साफ करा कर वहां मंदिर बनाने और नगर बसाने का आदेश दिया। जिस दिन इसका नामकरण होने वाला था, भगवान शिव वहां प्रकट हुए। वहीं उनकी जटा से अमृत की कुछ बूंदें टपक गई। इसीलिए इसका नाम ‘मधुरापुरी’ (अमृत की भूमि) पड़ा, जो बाद में ‘मदुरै’ हो गया। मदुरै पर ज्यादातर पांडय राजाओं ने राज किया। 16वीं सदी में मदुरै को नायकों ने अपनी राजधानी बनाया। इसी दौरान राजा तिरूमलाई नायक ने अपने तीस वर्ष के शासन के दौरान इस मंदिर और नगर का विकास करवाया।

अनूठे हैं गोपुरम

मीनाक्षी मंदिर के विशालकाय गोपुरम काफी दूर से ही दिखते हैं। छह हेक्टेयर भूमि पर बना यह दक्षिण भारत का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। द्वारों पर बने गोपुरमों में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, जीवों की आकृतियां  और पौराणिक कथाएं भी खुदी हैं। हमने पूरब तरफ के द्वार (गोपुरम) से प्रवेश किया। दक्षिण गोपुरम ऊंचाई में सबसे बड़ा है। 48.8 मीटर ऊंचे इस गोपुरम में 1500 आकृतियां उकेरी गई हैं। मंदिर में मूल रूप से दो देवालय हैं। एक में भगवान सुंदरेश्वर अर्थात शिव और दूसरे में उनकी पत्‍‌नी मीनाक्षी विराजमान हैं।

खंभे में संगीत के सुर

मीनाक्षी मंदिर को हजार खंभों वाला मंदिर भी कहा जाता है। इसमें 997 खंभे हैं, जिन पर नक्काशी के अद्भुत नमूने हैं। इन हजार खंभों के बीच एक म्यूजिकल खंभा है। इस पर चोट करने से मंदिर का प्रांगण संगीत की स्वर लहरियों से गूंज उठता है। मंदिर में एक म्यूजियम भी है। यहां प्राचीन शिलाओं, मूर्तियों, मुद्राओं और पौराणिक चीजों का बेजोड़ संग्रह है। शाम की पूजा के समय सैकड़ों दीपों से वातावरण जगमगा उठता है। रात नौ बजे दैनिक समाप्ति उत्सव के बाद आराध्य देव सुंदरेश्वर देवी मीनाक्षी के साथ शयनकक्ष में चले जाते हैं। तब मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं।

अजूबे दक्षिण के

तीसरे दिन हम वहां से पांच किमी दूर गांधी म्यूजियम गए। एक पुराने राजप्रासाद में बने इस म्यूजियम में गांधी जी और स्वतंत्रता संग्राम की कई निशानियां हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण खून लगी वह धोती है जिसे वह अंतिम समय पहने हुए थे। मंदिर से एक किमी दूर तिरूमलाई नायक महल है। इसमें  सेरासेनिक और मध्ययुगीन हिंदू स्थापत्य कला का बेहतर समन्वय देखा जा सकता है। इसकी गोलाकार छत बिना किसी आधार के टिकी है।

नए शहर से दूर पुराने शहर के पास मदुरै में एक वेंदितुर मरिअम्मा ताल है। मीनाक्षी मंदिर से छह गुना बड़े इस पवित्र ताल को भी राजा तिरूमलाई नायक ने बनवाया था। इसे वेगइ नदी से एक नहर के जरिये जोड़ा भी गया था, पर अब यह पूरे वर्ष सूखा रहता है। सिर्फ टेप्पाकूलम उत्सव के समय इसमें जल भरा जाता है। जनवरी-फरवरी में होने वाला यह उत्सव बहुत आकर्षक होता है। भगवान सुंदरेश्वर और देवी मीनाक्षी इस दौरान यहां लाए जाते हैं और कुछ दिन  पवित्र सरोवर में बने द्वीप मंदिर में निवास करते हैं।

सात पैगोडाओं का शहर

मदुरै से रात्रि सेवा की बस पकड़कर हम चेन्नई आए। हमारा अगला गंतव्य महाबलीपुरम था। इसके बारे में हमने पहले ही बहुत सुन रखा था। इसी दौरान एक सज्जन ने हमें बताया कि यदि समुद्रतटीय सौंदर्य का आनंद लेना है तो चेन्नई से महाबलीपुरम तक का 60 किमी रास्ता पैदल तय करना चाहिए। सागर तट पर बसे मुंबई और महाबलीपुरम के अतीत में एक दिलचस्प समानता है। वह यह कि प्राचीन काल में महाबलीपुरम सात पैगोडाओं का शहर था और मुंबई सात टापुओं का। बाद में महाबलीपुरम के छह पैगोडा तो समुद्र में डूब गए और मुंबई के सात द्वीप कोलाबा, फोर्ट, बाईकुला, परेल, वर्ली, माटुंगा और माहिम एक-दूसरे में मिलकर एकसार हो गए। चेन्नई से महाबलीपुरम तक की ट्रेकिंग तीन दिन में पूरी की जा सकती है। लिहाजा हमने तय किया कि हम आधे रास्ते ट्रैक करेंगे और बाकी सफर बस से तय करेंगे।

मेल परंपरा से आधुनिकता का

चेन्नई-महाबलीपुरम के ट्रैक का जो मजा है वह मजा गोवा-मंगलोर वाले ट्रैक पर नहीं है। यहां लोग बहुत कम आते हैं। इसलिए यहां अछूते सौंदर्य का भरपूर सुख उठाया जा सकता है। इस ट्रैक पर परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत मेल है। यहां प्राचीन अवशेष भी देखे जा सकते हैं। रास्ते में आधुनिक सुविधाओं से संपन्न रिसॉर्ट भी हैं। हमने चेन्नई के मरीना तट से ट्रैक शुरू किया। ज्यादा शोर-शराबा न होने से पक्षियों के झुंडों से भरा यह खूबसूरत टै्रक आसानी से पार हो जाता है। हमने ज्यादातर सुनहरी रेत में नंगे पांव ट्रेकिंग का मजा लिया। बीच में कई बार हमें जूते भी पहनने पड़े। कहीं-कहीं रास्ता इतना चट्टानी था कि हमें सागर का किनारा छोड़कर साथ की पक्की सड़क पर ट्रैक करना पड़ा। इन चट्टानी इलाकों में सावधानी बहुत जरूरी है। महाबलीपुरम से थोड़ा पहले वीजीपी गोल्डन बीच रिसॉर्ट और उसके साथ बना सफारी पार्क भी है, पर हम आधा रास्ता बस से तय करने के कारण उसे नहीं देख सके।

यहीं हुआ वामन अवतार

महाबलीपुरम का दूसरा नाम मामाल्लीपुरम है। कहते हैं कि इसे बंगोपसागर की छाती चीरने के बाद उसमें से निकले पहाड़ को तराश कर बनाया गया है। भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर जिस असुर महाबली को हराया था, उसी की याद में यह नाम पड़ा। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सातवीं सदी के वर्मन राजा महामल्ल के नाम पर इसका नाम महामल्लपुरम पड़ा। वही बाद में मामाल्लीपुरम हो गया और अब महाबलीपुरम।

महाबलीपुरम के अवशेषों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसे सातवीं शताब्दी में पल्लव राजाओं ने बसाया था। मोनोलिथिक पांडव रथ पल्लव काल की कला का बेहतरीन नमूना है। एक ही शिलाखंड से बनाए गए द्रौपदी रथ, अर्जुन रथ, धर्मराज रथ, भीम रथ और कृष्ण रथ अलग-अलग काल की कलाओं के अभूतपूर्व नमूने हैं। इन सबको मिलाकर पंचरथ कहा जाता है, पर वास्तव में संख्या में ये आठ हैं। पिरामिड आकार में समुद्र तट के किनारे पांच-मंजिला शोर टेंपल महाबलीपुरम की सबसे बड़ी और आकर्षक रचना है। चूंकि पल्लव राजा बौद्ध और जैन कला से काफी प्रभावित थे, इसलिए इस शोर टेंपल के शिल्प में बौद्ध और जैन दोनों कलाओं का संगम है। इसमें विष्णु और शिव की मूर्तियां हैं। शेषनाग पर लेटे विष्णु की ढाई मीटर लंबी प्रतिमा बेहद आकर्षक है।

कथा कहते पत्थर

यहां से पांच मिनट पैदल चल कर हम एक विशाल शिलाखंड के पास पहंुचे। यहां 90 फुट लंबे और 30 फुट ऊंचे शिलाखंड पर बैस रिलीफ शैली में निर्मित अर्जुन के तप की प्रतिमा है। यहां पंचतंत्र की कथाएं, गंगा का आगमन और कई कथाएं भित्तिचित्रों में गढ़ी मिलती हैं। यहां बना बारहमंडम भी बेजोड़ है। भित्तिचित्रों में गजलक्ष्मी और दुर्गा, गोवर्धन उठाते कृष्ण तथा महिषासुर वध जैसी पौराणिक घटनाएं यहां कलात्मक ढंग से उकेरी गई हैं। महाबलीपुरम आकार में बहुत छोटा और शांत होने के अलावा आधुनिक सुविधाओं से भी संपन्न है। यहां एक से दूसरे सिरे तक पैदल घूमा जा सकता है। शोर टेंपल के आसपास बने होटल हमेशा यूरोपीय पर्यटकों से भरे रहते हैं।

सातवां द्वार मोक्ष का

महाबलीपुरम से कांचीपुरम सिर्फ 65 किमी दूर है। दूसरे दिन सुबह हम कांचीपुरम चल पड़े। बस डेढ़ घंटे में कांचीपुरम पहंुचा देती है। उत्तर भारत के लोग कांचीपुरम को आमतौर पर सिल्क की साडि़यों के लिए जानते हैं। इसके अलावा इसे कांचीपीठ के शंकराचार्य के निवास और प्राचीन मंदिरों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। अपनी पवित्रता और मंदिरों के कारण इसे दक्षिण का काशी कहते हैं। यहां द्रविड़ संस्कृति के साथ बौद्ध और जैन धर्म का भी व्यापक प्रसार हुआ था। मोक्ष प्राप्ति के छह द्वारों काशी, मथुरा, उच्चयिनी, द्वारका, हरिद्वार और अयोध्या के साथ सातवें द्वार के रूप में कांचीपुरम को जाना जाता है। कभी कांचीपुरम में हजार मंदिरों की स्थापना हुई थी और 10 हजार से अधिक शिवलिंग थे, पर अब यह संख्या सिर्फ दो सौ के लगभग रह गई है।

कांचीपुरम की साडि़यां

कांचीपुरम के सभी प्रमुख मंदिर आसपास ही हैं। हमने 150 रुपये में दिन भर के लिए रिक्शा कर लिया। उसने हमें यहां के सभी मंदिर दिखाने के अलावा ऐसी फैक्ट्री में ले जाने का आश्वासन भी दिया, जहां अच्छी कांचीपुरम साडि़यां कम दाम पर मिल जाती हैं। राजा राज सिंह पल्लव और उनके पुत्र राजा महेंद्र वर्मा पल्लव द्वारा सातवीं सदी में निर्मित कैलाशनाथ मंदिर यहां का सबसे प्राचीन मंदिर है। यहां के मुख्य मंदिर में शिवजी हैं और उनके चारों तरफ 58 देवी-देवता हैं। पूरा मंदिर सैंडस्टोन से बना है और मंदिर के  अंदर की दीवारें फ्रेस्को स्टाइल की पेंटिंगों से भरी पड़ी हैं। कैलाशनाथ मंदिर के निकट एकांबरेश्वर मंदिर भी पल्लव राजाओं की देन है। इस विशाल मंदिर में भी 986 खंभे हैं। यहां के सबसे बड़े गोपुरम की ऊंचाई 57 मीटर है, जिस पर चढ़कर पूरे कांचीपुरम का विहंगम नजारा लिया जा सकता है।

आम के पेड़ में भगवान

एकांबरेश्वर मंदिर में चार बड़े-बड़े बरामदे हैं। इसके पिछले हिस्से में 2500 वर्ष पुराना आम का पेड़ है। इसकी चार शाखाओं पर अलग-अलग किस्म के आम फलते हैं। कहते हैं कि यह पेड़ ही इस मंदिर की स्थापना का कारण है। यहां आम के पेड़ वाले भगवान के रूप में वस्तुत: शिव की ही पूजा की जाती है। कांची पर जब मुसलिमों का राज हुआ तो एकांबरेश्वर की मूर्ति मद्रास भेज दी गई थी। बाद में लार्ड क्लाइव ने इसे वापस मंगाकर फिर से यहां स्थापित करवाया।

कांचीपुरम कैलाशनाथ के बाद श्रीवैकुंठपेरूमल मंदिर सबसे प्राचीन है। विष्णु के इस मंदिर का निर्माण भी पल्लवों ने कराया था। इसकी वास्तुकला और शिल्प अद्वितीय है। पल्लवों के इतिहास से संबंधित कई घटनाएं यहां के भित्तिचित्रों में उकेरी गई हैं। यहां भी हजार खंभों का एक विशाल कक्ष है। एकांबरेश्वर से थोड़ी ही दूर श्रीकामाक्षी मंदिर है। यहां की आराध्या देवी पार्वती हैं। देवी के मुख्य द्वार का विमानम सोने से मढ़ा हुआ है। फरवरी-मार्च में यहां विशाल मेला लगता है और देवी को रथ पर विराजित कर लंबी यात्रा पर ले जाया जाता है।

कटी नहीं जो जंजीर

श्री बैकुंठपेरूमल के निकट ही श्रीभरदराज मंदिर है। यह विष्णु का मंदिर है और यहां हाथी के आकार वाले पत्थर के देवता हैं। यहां एक सौ खंभों वाला हॉल है, जो विजयनगर काल के राजाओं की स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। यहां का मुख्य आकर्षण एक खंड पत्थर को काटकर बनाई गई जंजीर है। कहा जाता है कि अपनी ताकत के घमंड में हैदर अली ने अपनी तलवार से इस जंजीर को काटने की कोशिश की थी, पर वह नाकाम रहा। भारत के प्राय: सभी धार्मिक शहरों में या तो वैष्णव लोगों की बहुलता है या फिर शैवों की, लेकिन कांचीपुरम में दोनों के बीच संतुलन बरकरार है। एक तरफ पेरूमल मंदिर का विष्णुकांची है तो दूसरी तरफ एकांबरेश्वर के रूप में शिवकांची। बीच में कामाक्षी मंदिर में शक्ति की पूजा की जाती है। हिंदू विरोधी द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। आंदोलन के जन्मदाता अभादुरै की जन्मभूमि यहीं है और यहीं उनके भक्तों द्वारा निर्मित उनका एक समाधि स्थल भी है।

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