पर्यटन अनजानी शांत जगहों का

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आज पर्यटन का नाम आते ही हमारे मानस पर शिमला, मसूरी, नैनीताल जैसे पहाड़ी प्रदेश या जयपुर व उदयपुर ही उभरते हैं। ज्यादा उत्साही पर्यटक राजस्थान के चप्पे-चप्पे पर घूमते हैं या कुछ ऐसे भी हैं जो कश्मीर या लद्दाख तक पहुंचने का साहस जुटा लेते हैं। लेकिन आज पर्यटन के मायने बदल गए हैं। कठिनाई से मिले दुर्लभ क्षणों को आज भीड़-भाड़ वाले पर्यटन स्थल पर जाकर बेकार करना कोई नहीं चाहता। जो चैन से अपने दिन बिताना चाहते हैं वे जाते हैं ऐसे पर्यटन स्थलों की ओर जो दूर कहीं प्रकृति की गोद में बसे हैं और जहां शोर-शराबा नहीं हो। भारत में तमाम ऐसे स्थान हैं जो अखिल भारतीय स्तर पर तो प्रसिद्ध नहीं हैं, पर पर्यटन के हिसाब से बड़े ही रोचक हैं। आइए आज ऐसे ही कुछ स्थलों की बात करते हैं।

ऐहोल

भारत के दक्षिणी भाग में एक राज्य है कर्नाटक। यहां एक जगह है ऐहोल। ऐहोल ही वो जगह है जो मंदिरों के  शहर के रूप में जाना जाती है। वास्तव में यह शहर मंदिरों के प्रयोग का पहला केंद्र माना जाता रहा है। यही वो जगह है जहां मंदिर को मध्य में रखकर उसके चारों ओर शहर को विकसित करने की कोशिश की गई। अब ये प्राचीन इमारतें खंडहरों में बदल चुकी हैं, फिर भी इनके भग्नावशेष  देखकर निर्माता की विराट कल्पना का पता लगता है। दक्षिण भारत के पठारी इलाके में ऊंचे टीलों और उथली  घाटियों में बने इन खंडहरों के बीच उभर आए गांव अतीत के वैभव को वर्तमान की जीवंतता  प्रदान करते हैं। आज भी यहां मंदिरों, प्रसादों और घरों के सुरक्षित साक्ष्य मौजूद हैं।

ऐहोल में करीब 125  मंदिर हैं औरसभी  पश्चिमी चालुक्यों  के शुरुआती दौर में बने थे। इसका निर्माण काल छठी शताब्दी ई. से लेकर 12वीं  शताब्दी ई. के बीच माना जाता है। यहां के वास्तु पर पड़ोसी राज्यों का का़फी प्रभाव दिखाई पड़ता है। मुड़े हुए नक्काशीदार स्तंभ मध्य और पश्चिमी भारत की देन हैं। प्लास्टर  वाली दीवारों पर दक्षिणी भारत का प्रभाव दिखता है जबकि मंदिरों की बैलकनी  और ढलु आं छत दक्खन  के पठारी इलाकों की शैली पर बनी है।

शायद तमाम भारतीय शैलियों के मिश्रण के कारण ही इसे वास्तु की जन्मस्थली कहा जाता है। पर इसे वास्तु की धर्मस्थली  कहना बेहतर होगा क्योंकि यहां इतनी सारी शैलियों का संगम ही नहीं हुआ बल्कि उनके संयोग से वास्तु की नई सोच की शुरुआत भी हुई।

यहां मौजूद मंदिरों में सबसे पुराना मंदिर लाडखान  का है। इसका निर्माण पांचवीं शताब्दी में हुआ था। इसके अलावा यहां दुर्गा मंदिर है जिसका निर्माण अर्धचंद्राकार  ढंग से हुआ है। धार्मिक प्रवृत्ति हो या इतिहास जानने की ललक, वास्तु का चमत्कार देखने की लालसा हो या पत्थर में उभरी नक्काशी देखने की चाह, ऐहोल आकर आप अपनी हर ललक को पूरा कर सकते हैं।

खंडहरों में उभर आए गांवों में खेलते हुए बच्चों के बीच हचीमल्ली  के मंदिर में नाग के सिर पर बैठे भगवान विष्णु की सुंदर प्रतिमा को देखकर लगता है कि इस नगर के प्राचीन निर्माताओं ने कर्म साधना से वास्तु का ऐसा संतुलन स्थापित किया कि उसमें तमाम शैलियों का मिश्रण होने के बावजूद एक अनूठी नई शैली उभरी है। आईहोल के सभी मंदिरों को देखकर ऐसा लगता है कि इसके निर्माणकाल के दौरान भारत के बाकी इलाकों में हो रहे मंदिर निर्माणों का प्रभाव तो पड़ा पर वास्तु के व्यापक स्तर पर इन वास्तुकारों ने एक नई व्यवस्था खड़ी की। देखने वाले ये देख सकते हैं कि इमारतें ऊंची और चौड़ी होने के बजाय लंबी हैं। दीवारों के बजाय छत पर मूर्तिकारी की प्रधानता और बड़ी मूर्तियों की कमी साफ दिखाई देती है। शहर के शोर-शराबे से दूर यह स्थान ऐतिहासिक मूल्यों के साथ प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है।

कराईकल

भारत का धुर दक्षिण प्रांत तमिलनाडु बेहद मनोरम स्थल है। तमिलनाडु प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक समृद्धि का अनूठा गढ़ है। चेन्नई से करीब 300 किलोमीटर दक्षिण में है। यह एक छोटा शहर है जिसका नाम कराईकल  है।

बंगाल की खाड़ी के तट पर बसा कराईकल  बड़ा ही रोचक  व मनोरमस्थान है। सदियों से ये स्थान देश भर में संभ्रांत धार्मिक धरोहर के रूप में जाना जाता है। ये कभी फ्रांसीसियों का उपनिवेश हुआ करता था बाद में अंग्रेजों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। इसलिए आज ये अंग्रेजी फ्रांसीसी और हिंदू संस्कृति के सुंदर समन्वय का केंद्र बन गया है। यहां देखने के लिए वो भवन है जिसे फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों के हवाले किया था। इसके अलावा यहां एक भव्य कैथेड्रल और एक खूबसूरत मंदिर भी है। वास्तव में ये स्थल मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। नदियों और तटों से युक्त यह स्थल टूरिस्टों की पहुंच से दूर है, लेकिन प्राकृतिक सौंदर्य के प्रेमी व शांति पसंद लोग यहां आकर दुनिया भूल जाते हैं।

कराईकल भारत में अपने नायाब शनि मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। भगवान शनि को समर्पित ये मंदिर तिरुनल्लार के नाम से जाना जाता है। लेकिन यहां मौजूद कराईकल अस्माइयार  का मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यहीं विनायक का भी मंदिर है।

हालांकि अस्माइयार  का मंदिर 1929  में स्थापित हुआ है, पर पतिव्रता नारी के सम्मान में बने इस मंदिर का बड़ा महत्व है। यहां आने के बाद इस मंदिर को देखे बगैर यहां की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती। कराईकल असल में दो और बड़े धार्मिक पर्यटन केंद्रों के भी करीब है। ईसाईयों के चर्च वेलन्कनी और मस्तान दाउद की दरगाह नागौर भी यहां से काफी करीब हैं। वेलन्कनी के बारे में कहा जाता है यहां आने वाले श्रद्धालुओं में सभी धर्म के लोग शामिल होते है।

हवाई मार्ग से आने के लिए सबसे नजदीकी एयरपोर्ट तिरुचरापल्ली है। ट्रेन द्वारा सबसे नजदीक रेलवे स्टेशन नागौर है, जो कराईकल से मात्र 10 किलोमीटर दूर है।

श्रीरंगपट्टनम

कर्नाटक के मैसूर शहर के पास एक महत्वपूर्ण शहर है श्रीरंगपट्टनम।  ये कभी मैसूर के शेर टीपू सुल्तान की राजधानी हुआ करती थी। दो नदियों के बीच उभरे एक द्वीप पर बसा श्रीरंगपट्टनम  सामरिक रूप से बड़े महल की जगह थी।

भारत के सबसे मजबूत किलों में इसकी गणना की जाती है। सुरक्षा की दृष्टि से यह महल दोहरी दीवार के भीतर बना है। वैसे तो श्रीरंगम  में किला और मंदिर दोनों ही हैं मगर शहर मूल रूप से टीपू  के रंग में रंगा है। यहां टीपू  का महल भी है और उसका मकबरा भी। इस किले के चार गेट हैं बैंगलौर, मैसूर, दिल्ली और वॉटर व एलिफेंट गेट। यही वॉटर  गेट है, जहां टीपू  और अंग्रेजों के बीच जबर्दस्त लड़ाई हुई थी और टीपू  घायल हो गए। युद्ध के दौरान जहां कैदियों को रखा जाता था वह लाल महल है। उसी से कुल 300  मीटर दूर वो जगह है जहां टीपू  ने दम तोड़ा था।

श्रीरंगपट्टनम  की शाम बहुत सुंदर होती है। डूबते सूरज की लालिमा में डूबी नदियों का पानी लाल हो जाता है और ये लाली दूर-दूर तक दिखाई देती है।

श्रीरंगपट्टनम का नाम प्रसिद्ध रंगनाथ स्वामी मंदिर के नाम पर पड़ा है। ये शहर दक्षिण भारत के चार राज्यों में वैषण्व  संप्रदाय का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण नवीं शताब्दी में गंग राजवंश ने करवाया था। बीतते समय के साथ-साथ आने वाले राजवंशों ने इसमें सुधार करवाए इसलिए मंदिर पर होयसाला  और विजय नगर  शासनकाल के वास्तु की छाप भी दिखाई देती है। यहां ये मान्यता है कि पवित्र कावेरी नदी के उभरे तीन विशाल द्वीपों को रंगनाथ स्वामी को समर्पित कर दिया गया है। इसलिए इन तीनों द्वीपों पर मंदिर बने है। श्रीरंगपट्टनम  में आदि रंगा का मंदिर है। शिवसमुद्रम  में मध्य रंगा और श्रींगम  में अंत्य रंगा का मंदिर है।

इतिहास में रुचि रखने वाले पर्यटकों के लिए श्रीरंगपट्टनम बहुत की आकर्षक जगह है। नवीं शताब्दी के गंग राजवंश से लेकर 18वीं शताब्दी के अंत में टीपू सुलतान तक ये इस क्षेत्र के राजनैतिक मानचित्र पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा।

यहां की परंपरागत लोक कथाओं में वोडेयार  राजवंश के हाथों मिली हार की कथाएं काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि विजयनगर  के हारे हुए वायसराय  की पत्नी अलामेलम्मा  ने वोडेयारों  का श्राप दिया कि उनके राजवंश में गद्दी पर बैठने वाले राजा के संतान नहीं होगी। किंवदंतियों  के मुताबिक सन् 1614  से आज तक मैसूर के किसी भी राजा के संतान नहीं हुई और उसके बाद भाईयों या दत्तक पुत्रों ने ही गद्दी संभाली।

चंद्रगिरि महल

आइए दक्षिण में आपको एक और जगह ले चलते हैं। इधर की ओर लोग कम ही रुख करते हैं। ये है तिरुपति से कुछ दूर बना चंद्रगिरि महल। भीड़भाड़ से दूर बना ये महल अपनी सादगी और वैभव दोनों के लिए मशहूर है। सोलवहीं सदी में राजा कृष्णदेव राय ने इसका निर्माण करवाया था।

गुलाबी रंग के इस महल में एक छोटा-सा संग्रहालय है। इस संग्रहालय की सबसे बड़ी विशेषता इसमें रखा शिवलिंग  है। इसके साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्तियां भी उकेरी गई हैं। महल का बाग भी बहुत सुंदर है और तेज गर्मी में भी इसकी छांव और शीतल वृक्ष की छाया में अच्छी पिकनिक मनाई जा सकती है।

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जनपद में बसा ये चंद्रगिरि शहर राजा के महल के लिए प्रसिद्ध है। सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर  के अराविदू राजवंश ने अपनी राजधानी हाम्पी से हटाकर चंद्रगिरि  में स्थापित की। उस समय यहां 11वीं  शताब्दी में बने किले का पुनर्निर्माण किया गया। करीब 100  साल बाद गोलकुंडा के सुलतान ने इस पर कब्जा कर लिया। महल देखने आए पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण साउंड एंड लाइट शो है। इसमें सूर्यास्त के बाद हर शाम अंग्रेजी और तेलुगू में इस महल और इलाके के इतिहास की कहानी सुनाई जाती है।

महल के करीब ही एक झील है जहां नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। चंद्रगिरि महल विजयनगर सामराडम के अंतिम दौर का महल है। इसलिए यहां हाम्पी जैसा वैभव देखने को तो नहीं मिलेगा लेकिन जो बात किसी भी सूक्ष्मदर्र्शी  पर्यटक को आकर्षित करेगी वो ये कि अपने पतन के दौर में भी अराविदू राजवंश का इतना बोलबाला था कि उनकी राजधानी को दीवारों की सुरक्षा की जरूरत नहीं थी। महल के आसपास किलेबंदी नहीं दिखाई देती। गुलाबी रंग में रंगे इस महल में लंबी गलियारे और बड़े कमरे हैं और असल में ये अवध की किसी बड़ी हवेली की तरह लगता है। कमरों की बनावट और अंदरूनी वास्तु काफी आधुनिक है और ऐसा लगता है जैसे राजवंश के राजा पश्चिमी सोच और वास्तु के नए प्रयोगों से भलीभांति परिचित थे।

दतिया

दक्षिण से चलें यदि उत्तर की ओर तो रुकते हैं मध्य भारत के प्रांत मध्य प्रदेश का शहर दतिया में। दतिया चंदेल राजाओं का गढ़ था। हिंदू स्थापत्य का ये एक शानदार नमूना है। दतिया महल छ:  मंजिल ऊंचा है और उसमें  करीब 400  कमरे हैं। टीले पर बसा ये महल दूर-दूर तक अपने वैभव की झलक देता रहता है। शहर में दो महल है और चंदेल राजाओं की विरासत भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। पर वर्तमान काल में यह शक्ति उपासना का केंद्र है। हर साल यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहां के बारे में एक रोचक किंवदंती  है कि गुरु के जीवित न होने के बावजूद यहां लोगों को तभी दीक्षा मिलती है जब उनकी इछा होती है। हर साल नवरात्र के अलावा दो और दिनों में दीक्षा संपन्न होती है। पर पिछले दो वर्षो से ये प्रक्रिया बंद है। दतिया की स्थापना बुंदेला राजा वीर सिंह देओ ने की थी। उनके नाम पर बने महल को गोविंद मंदिर भी कहा जाता है। ओरछा की तरह दतिया का महल भी 16वीं और 17वीं  शताब्दी में उभरे बुंदेलखंड के नायाब वास्तु के दो अच्छी तरह संरक्षित नमूनों में से एक है।

टीले के ऊपर बने इस महल में पांच मंजिलें है। इसके अलावा कई भूमिगत राज भी है। साथ महल में 35  मीटर ऊंचा एक गुंबद है। महल की खासियत ये है कि इसे पूरी तरह पत्थर और ईटों से बनाया गया है। इसमें कहीं भी लकड़ी या लोहे का इस्तेमाल नहीं हुआ है। इस दृष्टि से भी यह महल खास है।

नई दिल्ली के संस्थापक श्री एडविन लुटियास  को ये महल बहुत पसंद था। लेकिन इस महल से जुड़ी एक अजीबोगरीब सच्चाई यह भी है कि इस महल के निर्माण पूरा होने के बाद से लेकर आज तक इसमें कभी किसी राजा, अधिकारी या मंत्री ने निवास नहीं किया।

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