मरुभूमि का नगीना माउंट आबू

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मरुभूमि पर एक नगीने-सा सजा माउंट आबू राजस्थान का एकमात्र पर्वतीय स्थल है। लगभग 1220 मीटर की ऊंचाई पर बसा यह पहाड़ी शहर राज्य के दक्षिण में गुजरात की सीमा के निकट है। लगभग 25 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैली यह नगरी अरावली की पहाडि़यों पर दूर तक फैले एक पठारी क्षेत्र में बसी है। जहां हर ओर हरियाली का साम्राज्य है। इसलिए यहां की जलवायु भी स्वास्थ्यवर्धक है। जगह-जगह दिखाई पड़ती अनोखे आकार की चट्टाने माउंट आबू को अन्य हिल स्टेशनों से बिलकुल अलग करती हैं। माउंट आबू पहुंचना कठिन नहीं है। दिल्ली-अहमदाबाद मार्ग पर स्थित आबू रोड स्टेशन से माउंट आबू मात्र 29 किमी. दूर है। यही नहीं, जयपुर, अजमेर, उदयपुर, जोधपुर, बड़ौदा और अहमदाबाद शहरों से माउंट आबू सड़क मार्ग द्वारा भी बखूबी जुड़ा है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर में लगभग 185 किमी. दूर है।

यात्रा की शुरुआत

दिल्ली से आश्रम एक्सप्रेस द्वारा यात्रा आरंभ कर जब हम आबू रोड स्टेशन पर उतरे तो सुबह के लगभग पांच बजे थे। हमें यहां से माउंट आबू जाने के लिए बस पकड़नी थी। बस चलने तक सुबह का उजाला हर ओर फैल चुका था। बस शहर को पीछे छोड़, बनास नदी के पुल को पार करके आगे बढ़ी तो अरावली के पहाड़ नजर आने लगे। प्रकृति द्वारा तराशी हुई अनोखे आकार की चट्टानें हमें अभी से दिखनी शुरू हो गई। ओम शांति नगर के बाद बस हरे-भरे पहाड़ी मार्ग में प्रवेश कर चुकी थी। वैसे तो वातावरण में अभी सुबह की ठंडक थी। लेकिन जैसे-जैसे बस ऊंचाई की ओर बढ़ रही थी ठंडक ज्यादा महसूस होने लगी थी। इस ठंड में एक अलग ही आनंद आ रहा था। समुद्रतल से ऊंचाई बढ़ने के साथ ही जलवायु में परिवर्तन स्पष्ट महसूस होने लगा। हवा में पहाड़ी वनस्पतियों की खूशबु आने लगी थी। लगभग एक घंटे बाद घुमावदार मार्ग के किनारों पर होटलों के बड़े-बड़े होर्डिग नजर आने लगे तो हम समझ गए कि हमारी मंजिल अब निकट है। टोल टैक्स बैरियर पार करने के कुछ देर बाद, होटलों की एक कतार के बीच से होते हुए हमारी बस स्टैंड पर पहुंच गई।

रिहाइश की सुविधा

माउंट आबू में हर रेंज के होटलों की भरमार है। ज्यादातर होटल बस स्टैंड के पास ही हैं पर कुछ होटल झील के पास भी हैं। लेकव्यू, नटराज, सरस्वती, राजदीप, अरावली और विश्राम होटल साधारण बजट के होटल हैं तो मधुबन, सम्राट, सवेरा पैलेस, सनसेट, महाराजा इंटरनेशनल, आबू इंटर नेशनल आदि मध्यम बजट के होटलों में से हैं। लग्जरी होटल बस स्टैंड से कुछ पहले बने हैं। इनमें शामिल हैं पैलेस होटल, कनॉट हाउस, होटल, हिलटन, होटल हिललॉक और लेक हाउस। इनमें से कुछ हैरीटेज होटल हैं। राजस्थान पर्यटन विकास निगम का शिखर टूरिस्ट बंगला भी मध्यम बजट के होटलों में से एक है। हमारा आरक्षण इसी होटल में था। रिसेप्शन पर औपचारिकताएं पूरी कर हम अपने रूम में आ गए।

माउंट आबू में अनेक दर्शनीय स्थल हैं। इनमें कुछ शहर से दूर हैं तो कुछ शहर के आसपास ही हैं। आबू दर्शन के लिए पर्यटन विभाग द्वारा निजी बस ऑपरेटरों द्वारा साइटसीन टूर चलाए जाते हैं। ये टूर आधे दिन के होते हैं। वैसे जीप या टैक्सी द्वारा भी आबू भ्रमण किया जा सकता है। राजस्थान पर्यटन का कार्यालय बस स्टैंड के सामने है। जहां से यहां की पूरी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। पहले से एकत्रित जानकारी के आधार पर हमने भी आबू में घूमने का एक सिलसिलेवार कार्यक्रम बनाया। शहर के अंदर या पास के स्थान पैदल घूमते हुए, यहां के नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद लेने का मन था तो बाहर के स्थान देखने के लिए टैक्सी बुक कर ली ताकि हर स्थान पर मन चाहा समय व्यतीत कर सकें। कंडक्टेड टूर में हर स्थान पर सीमित समय ही दिया जाता है। पहले दिन हमने शहर के आसपास घूमने का निर्णय लिया। ब्रेकफास्ट के बाद, होटल से बाहर निकल हम नक्की झील की ओर चल दिए।

नक्की झील

मुख्य सड़क के दोनों ओर बने होटल, रेस्टोरेंट और शोरूम देखते हुए हम एक चौराहे पर पहुंचे। यहां से नक्की झील की ओर जाने वाला मार्ग पूछ कर हम उस ओर चल दिए। इस मार्ग पर बहुत-सी छोटी दुकानें, फास्टफूड और आईसक्रीम पार्लर आदि हैं। झील के निकट पहुंचे तो वहां काफी चहल-पहल थी। पर्यटकों की भीड़ को देखकर सहज ही इस झील के आकर्षण का अनुमान लगाया जा सकता है। शहर के मध्य स्थित यह झील माउंट आबू का सबसे पहला आकर्षण है। हरी-भरी पहाडि़यों से घिरी नक्की झील लगभग ढाई किमी. के दायरे में फैली है। इसके चारों तरफ एक साफ-सुथरी सड़क है। यहां प्रचलित एक दंतकथा के अनुसार इस झील को एक देव पुरुष ने अपने नाखून से बनाया था। आरंभ में इसे नख की झील कहा जाता था। समय के साथ बदल कर इसका नाम नक्की झील पड़ गया। आज यह झील माउंट आबू का दिल है। इसके किनारे एक छोटा-सा पार्क है और पार्क के दूसरे छोर पर एक हाउसबोटनुमा रेस्टोरेंट है, सरोवर कैफे।

बोटिंग का आनंद

झील के किनारे एक बेंच पर बैठे, काफी देर तक हम झील में तैरते सफेद जलचर और तैरती नौकाओं को देखते रहे। इसके बाद हम भी एक पैडल बोट किराये पर लेकर बोटिंग का आनंद लेने लगे। बोट को आगे बढ़ाते हुए जब हम झील के मध्य पहुंचे तो लहरों के साथ तैरती-सी एक मधुर धुन सुनाई पड़ी। कुछ आगे बढ़े तो पता चला यह धुन एक शिकारे से आ रही है जिसमें एक राजस्थान युवक कोई लोकवाद्य बजा रहा है और सामने बैठा एक विदेशी युगल तन्मयता से वह संगीत सुन रहा है। आसपास बोटिंग करते सभी लोग उस धुन का आनंद ले रहे थे। बोटिंग के बाद हम पार्क में आए। वहां एक ओर लोग रंग-बिरंगी पोशाक किराये पर लेकर तसवीरें खिंचवा रहे थे। लंच के लिए हम खिड़की के निकट एक टेबल पर आ बैठे ताकि यहां बैठकर भी हम झील के सौंदर्य को निहार सकें।

हनीमून पाइंट

सफर के पहले दिन का जोश और झील को विभिन्न दिशाओं से देखने की चाह लिए हम झील के किनारे, सड़क पर पैदल ही हनीमून पाइंट की ओर चल दिए। हर दिशा से झील का एक अलग रूप देखने को मिलता है। कहीं हरे-भरे पेड़ झील पर झुके हैं तो कही पहाडि़यों पर बने घरों का प्रतिबिंब झील की लहरों पर हिल रहा है। शहर से कुछ दूर पहाड़ी के किनारे पर, कुछ चट्टानों के बीच एक शांत और मनोरम स्थान है हनीमून पाइंट। दरअसल हनीमूनर्स को शहरी कोलाहल से दूर ऐसे ही एकांत स्थान की तलाश होती है जहां वे बाहरी दुनिया से बेखबर घंटों अपनी दुनिया में खोए रहें। शायद इस स्थान में यह खासियत देखकर लोगों ने इसे हनीमून पाइंट कहना शुरू किया होगा। बैठने के लिए कुछ बेंच, कुछ चट्टानें, पक्षियों का मधुर स्वर, नैसर्गिक छटा और सामने फैली विस्तृत घाटी। हम भी एक चट्टान पर बैठ घाटी में फैले खेतों को देखते रहे। ऐसे मनोरम वातावरण में हमने भी कुछ यादगार पल बिताए। इधर-उधर बैठे नवविवाहित युगलों को देखकर ऐसा लगा कि वास्तव में हनीमून पाइंट उनके लिए एक आदर्श सैरगाह है। शाम होने से पूर्व ही हम वहां से वापस चल दिए। बेहद थकान के कारण हम सीधे अपने होटल आ गए। उस रात डिनर हमने होटल में ही किया।

मंदिरों का दर्शन

शहर से बाहर के दर्शनीय स्थलों का क्रम शुरू करते हुए हम सुबह ही दिलवाड़ा मंदिर के लिए, टैक्सी द्वारा चल दिए। दिलवाड़ा जैन मंदिर प्राचीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पूरे देश में विख्यात ये मंदिर 11वीं से 13वीं शताब्दी के दौरान चालुक्य राजाओं के संरक्षण में बने थे। यहां पांच मंदिरों का एक समूह है, जो बाहर से देखने में साधारण से प्रतीत होते हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही हमारा मंुह आश्चर्य से खुला रह गया। हमें लगा जैसे संगमरमर पर उत्कीर्ण कला के किसी स्वप्निल संसार में आ गए हों। फूल-पत्तियों व अन्य मोहक डिजाइनों से अलंकृत, नक्काशीदार छतें, पशु-पक्षियों की शानदार संगमरमरीय आकृतियां, सफेद स्तंभों पर बारीकी से उकेर कर बनाई सुंदर बेलें, जालीदार नक्काशी से सजे तोरण और इन सबसे बढ़कर जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएं। वास्तव में हमारे सम्मुख एक अद्भुत कला संसार था। विमल वसही मंदिर के अष्टकोणीय कक्ष में स्थित है भगवान आदिनाथ की प्रतिमा। मंदिर के प्रांगण में 48 नक्काशीयुक्त स्तंभ हैं और 52 कक्षों में जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएं स्थित हैं। लूण वसही मंदिर तीर्थकर नेमीनाथ जी को समर्पित है। मंदिर की छत पर उत्कीर्ण एक भव्य कमल हमने देखा जो वाकई इस कला का एक नायाब नमूना है। इसके बाद हमने महावीर जी मंदिर, ऋषभ देव मंदिर और पा‌र्श्वनाथ मंदिर भी देखे। मंदिरों का कोना-कोना भी दर्शनीय था। वास्तव में शिल्पियों ने सफेद पाषाण पर कला का एक महाकाव्य रच दिया है जिसे कुछ घंटों में पढ़ पाना कठिन था।

वहां से हम अधर देवी मंदिर की ओर चल दिए। दुर्गा को समर्पित अधर देवी मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यहां देवी की प्रतिमा, प्राकृतिक रूप से अधर में झुकी एक चट्टान के नीचे स्थित है। इसलिए इस मंदिर को अधर देवी मंदिर कहा जाता है। लगभग 250 सीढि़यां चढ़कर हम देवी के दर्शन को पहुंचे। सीढि़यों के आसपास छोटी-छोटी दुकानों में तीर्थयात्रियों की जरूरत का सामान मिलता है। इनमें शीतल पेय और चाय आदि की दुकानें भी हैं। इस छोटे से व्यवसाय से जुड़े लोगों का जीवन मंदिर में आने वाले सैलानियों की संख्या पर निर्भर करता है। ऊपर आसपास चट्टानों के बीच कैक्टस के झाड़ नजर आ रहे थे। चट्टान के नीचे मंदिर में झुककर प्रवेश कर हमने भी देवी के दर्शन कर प्रसाद लिया। जब हम वापस आए तो लंच का समय निकल चुका था। अत: वहीं कुछ गुजराती स्नैक्स का स्वाद लिया और टैक्सी में आ बैठे।

सनसेट पाइंट

मांउट आबू घूमने वाले पर्यटकों के लिए भाषा की कोई समस्या नहीं है, क्योंकि यहां की बोल-चाल की भाषा हिंदी ही है जिसमें एक अलग ही राजस्थानी पुट है। शो-रूम, होटल आदि में लोग गुजराती भाषा भी जानते हैं क्योंकि यहां गुजराती पर्यटक बहुत आते हैं और उनको प्रभावित करने के लिए उनकी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। यहां गाइड हिंदी के अतिरिक्त गुजराती और इंगलिश भी जानते हैं। यहां के लोगों का मृदुभाषी होना भी एक खास बात है। जयपुर की तरह यहां भी लोग किसी को संबोधित करते समय ‘साहब’ शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं। किसी से रास्ता भी पूछें तो वह साहब कह कर ही उत्तर देगा। पर्यटकों के प्रति उनका रवैया प्राय: सहयोगपूर्ण ही होता है। टैक्सी ड्राइवर ने हमें ऐसा ही सहयोग दिया। पार्किग में टैक्सी खड़ी कर वह पैदल हमारे साथ सनसेट पाइंट तक गया और हमें उपयुक्त स्थान पर बैठने को कहा। वहां से सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य देखने के लिए रोज शाम हजारों लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता है। दूर तक फैली विस्तृत घाटी के पीछे क्षितिज में समाता शीतल सूर्य ऐसा प्रतीत होता है मानो पृथ्वी के दूसरे गोलार्ध में प्रवेश कर रहा हो। यह अनोखा मंजर देखकर हम बाजार की ओर चल दिए। शाम होते ही बाजार की चहल-पहल और बढ़ जाती है। यहां के लोग, खासकर युवा वर्ग इस रौनक में शामिल हो जाता है। फैशन की दौड़ में यहां का युवा वर्ग भी शामिल है। लेकिन बड़े शहरों का फैशन यहां कुछ देर से पहुंचता है। यहां की लड़कियां प्राय: तड़क-भड़क से दूर शालीनता भरे फैशन को अपनाती हैं।

अगले दिन भी टैक्सी सही समय पर हमारे होटल के बाहर आ गई। हम गुरु शिखर की ओर जा रहे थे। सारा रास्ता विभिन्न प्रकार के पेड़ों की हरीतिमा से भरा था। इनमें खजूर बांस, ओक, चीड़, गुड़बेल और आडू़ के पेड़ बहुतायत में हैं। गुरु शिखर अरावली पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी है। यह स्थान शहर से 15 किमी. दूर है। शिखर से कुछ पहले विष्णु भगवान के एक रूप दत्तात्रेय का मंदिर है। मंदिर के पास से ही शिखर तक सीढि़यां बनी हैं। शिखर पर एक ऊंची चट्टान है और एक बड़ा-सा प्राचीन घंटा लगा है। दत्तात्रेय मंदिर के दर्शन कर हम शिखर की सीढि़यों पर चढ़ने लगे। मंदिर के सामने बने अनेक अस्थायी रेस्तरां और शीतल पेय कंपनियों के विज्ञापनों ने वहां का प्राकृतिक सौंदर्य बिगाड़ रखा था। गुरु शिखर पर पहुंच कर हमने भी वह घंटा बजाया और दूर तक फैली उसकी गूंज का आनंद लेने लगे। यहां से आसपास का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है।

वहां से वापस चलकर हम अचलगढ़ पहुंचे। यहां शिव को समर्पित ‘अचलेश्वर महादेव’ मंदिर है। मंदिर में पीतल की बनी नंदी की सुंदर प्रतिमा भी है। मंदिर में एक छोटा-सा कुंड है जिसका जल कभी नहीं सूखता। यहां कुछ जैन मंदिर भी हैं। इनमें प्रमुख चौमुखा मंदिर, जिसमें अष्टधातु की अत्यंत दर्शनीय प्रतिमाएं हैं।

मंदिरों के दर्शन करने के बाद हम महाराणा कुंभा का प्राचीन किला और भर्तृहरि गुफाएं भी देख कर आए। अचलगढ़ से जब हम वापस चले तो दोपहर हो चुकी थी। हमने ड्राइवर से माउंट आबू वापस चलने के लिए कहा तो उसने हमसे ओम शांति भवन देखने का आग्रह किया। यह भवन ब्रह्मकुमारी मिशन का उपासना केंद्र है। विभिन्न चित्रों के माध्यम से यहां ईश्वर के अस्तित्व को समझाने का प्रयास किया गया है। इस भवन में एक बहुत बड़ा सम्मेलन कक्ष है। आध्यात्मिक शांति की खोज में भटकते लोगों के लिए हमें यह एक आदर्श स्थान लगा। नक्की झील के निकट पहुंचकर हमने ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय भी देखा।

सीधी-सादी जिंदगी

सीधे-सादे लोगों की नगरी माउंट आबू में बड़े शहरों की फास्ट लाइफ जैसा कुछ नहीं है। हर तरह से यह एक शांत पर्यटन स्थल है। यहां की आबादी का काफी बड़ा हिस्सा पर्यटन उद्योग से किसी न किसी रूप में जुड़ा है। यहां कुछ सरकारी कार्यालय भी हैं-जैसे वन विभाग आदि। यहां की महिलाएं व्यवसाय से तो कम जुड़ी हैं लेकिन सरकारी कार्यालय और स्कूलों में अवश्य कार्यरत हैं। बहुत से छोटे शो-रूम और दुकानों पर परिवार की महिलाएं पुरुषों का साथ देती हैं। माउंट आबू का मध्यमवर्गीय जीवन बनावटी चमक-दमक से दूर है। शहरों में मकानों की बनावट साधारण है। कुछ नये बने घरों की बनावट में नयापन जरूर देखने को मिलता है। शहर से कुछ हटकर समृद्ध लोगों के कोठीनुमा घर देखे जा सकते हैं। वैसे ही घूमते हुए हम मुख्य बाजार से हटकर एक स्थानीय बाजार में जा पहंुचे। वहीं सब्जी की दुकानों के पास से निकलते हुए एक मजेदार बात देखने को मिली। सब्जी बेचने वाले सब्जी के रेट बताने और ग्राहकों को बुलाने के लिए आवाजें नहीं लगा रहे थे। यह काम उनके टेप रिकॉर्डर कर रहे थे। जिनमें सब्जी के दाम आदि बताने की आवाजें पहले से रिकॉर्ड कर रखी थीं। शायद सब्जी के भाव बदलने पर नयी रिकॉर्डिग करनी पड़ती होगी।

अगले दिन हम शहर में स्थित राजकीय संग्रहालय  देखने गए। राजभवन मार्ग पर स्थित इस संग्रहालय में, पुरात्विक खुदाई में प्राप्त आठवीं से बारहवीं शताब्दी के काल की वस्तुएं भी प्रदर्शित हैं। रघुनाथ मंदिर नक्की झील के निकट है। पास से एक रास्ता टोडरॉक की ओर जाता है। यह एक अनोखे आकार की चट्टान है। इसे देख ऐसा लगता है मानो एक मेंढक झील में कूदने को तैयार है। यहां से नक्की झील का मनोहारी दृश्य नजर आता है।

सांस्कृतिक जीवन

माउंट आबू के सांस्कृतिक जीवन की झलक त्योहारों और उत्सवों पर ही देखने को मिलती है। प्रतिवर्ष जून में होने वाले समर फेस्टीवल यानी ग्रीष्म महोत्सव में तो यहां जैसे पूरा राजस्थान ही सिमट आता है। रंग-बिरंगी परंपरागत वेशभूषा में आए लोक कलाकारों द्वारा लोक नृत्य और संगीत की रंगारंग झांकी प्रस्तुत की जाती है। घूमर, गैर और धाप जैसे लोक नृत्यों के साथ डांडिया नृत्य देख सैलानी झूम उठते हैं। तीन दिन चलने वाले इस महोत्सव के दौरान नक्की झील में बोट रेस का आयोजन भी किया जाता है। शामे कव्वाली और आतिशबाजी इस फेस्टिवल का खास हिस्सा हैं।

आबू रोड जाने वाले मार्ग के पास ही गोमुख मंदिर है। यह स्थान भी महर्षि वशिष्ठ से जुड़ा हुआ है। मान्यतानुसार उनके द्वारा किए गए यज्ञ की अग्नि से ही राजस्थान केराजपूत वंश उदय हुआ था। यहां गऊ के मुख की आकृति वाली एक चट्टान है। यहां से वापस झील की ओर आए तो दिन छिप चुका था। पहाड़ी पर बने मकानों की लाइटें जल चुकी थीं। उन लाइटों का झिलमिलाता प्रतिबिंब झील के पानी में बेहद आकर्षक लग रहा था। अगले दिन हमें आबू से प्रस्थान करना था। इसलिए ऐसे आकर्षक दृश्यों को हम अपनी यादों में बसा लेना चाहते थे।

शापिंग

आखिरी दिन हमने शापिंग भी की। यहां खरीदारी के लिए राजस्थानी हस्तशिल्प और परिधान के साथ गुजरात के हस्तशिल्प भी मिलते हैं। राजस्थान एम्पोरियम के अतिरिक्त कई और अच्छे एम्पोरियम और शो-रूम हैं। यदि छोटी दुकानों से कुछ खरीदना हो तो बारगेनिंग भी की जा सकती है। हमने राजस्थानी वस्त्र कला टाई एंड डाई के परिधान और कठपुतली का जोड़ा भी खरीदा।

दोपहर बाद हम माउंट आबू से आबू रोड के लिए चल दिए। वहां से हमारा राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली का आरक्षण था। माउंट आबू को हम अलविदा कह आए थे लेकिन वहां की मधुर स्मृतियों में हमारे साथ था झील की लहरों पर तैरता तरन्नुम, जूही, चमेली और जंगली सेवती केफूलों की खुशबू, दिलवाड़ा का उपमाओं से ऊंचा कला संसार, अरावली की हरी-भरी पहाडि़यां और यहां के निवासियों की सरल-सी जीवन शैली।

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