चलो गंगाधाम

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अक्षय तृतीया का दिन उत्तरकाशी के लिए विशेष महत्व रखता है। इस तिथि को प्रत्येक वर्ष उत्तराखण्ड के चार में से दो धाम गंगोत्री और यमनोत्री के पट यात्रियों के लिए खुल जाते हैं। इसी के साथ चारधाम यात्रा का शुभारंभ हो जाता है। अक्षय तृतीया को गंगाजी डोली में सवार होकर अपने शीतकाल के निवास मुखिमठ से गंगोत्री स्थित गंगा मंदिर पहुंचकर वहां अपना ग्रीष्मकालीन निवास स्थापित कर लेती हैं। मुखिमठ को आम भाषा में लोग मुखबा के नाम से जानते हैं। ऐसी मान्यता है कि मुखबा गंगाजी का मायका है जहां वह साल के छह माह रहती हैं। अक्षय तृतीया से एक दिन पहले गंगाजी की डोली मुखबा से गंगोत्री के लिए प्रस्थान करती है। हमारे एक मित्र का परिवार मुखबा में रहता है, वह हमें डोली यात्रा में भाग लेने का निमंत्रण दे गए थे। हमने तुरंत उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और यात्रा से एक दिन पूर्व संध्या के समय मुखबा पहुंच गए।

पहाड़ों की परंपरा

मुखबा अत्यंत ही सुंदर गांव है। यहां अधिकतर भवन लकड़ी से निर्मित हैं। यह क्षेत्र अपनी काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है जिसके उत्कृष्ट नमूने मुखबा के भवनों पर स्थित हैं। भवनों पर की गई नक्काशी देखने लायक है। हम गांव को देख कर ही खुश हो गए और बेसब्री से सुबह के जलसे का इंतज़ार करने लगे। सुबह से ही गांव में हलचल शुरू  हो गई। सूर्योदय से पहले ही ढोल बजने लगे और उनकी थाप से सारा गांव जग गया। गंगोत्री के पंडे, जिन्हें रावल कहते हैं, सभी मुखबा के ही मूल निवासी हैं। गंगाजी की डोली वे ही सजाते है। सुबह से ही आसपास के गांवों से लोगों का तांता लग गया था, सभी गंगाजी को विदा करने आए थे। गांव के सब लोग सुबह ही नहा-धो कर मंदिर में दर्शन के लिए पहुंच गए, मंदिर के बाहर भीड़ लग गई थी, हम भी इसी भीड़ में शामिल हो गए।

पहाड़ों की परंपरा के अनुसार बेटी की विदा के समय गांव में सभी कुछ न कुछ भेंट करते हैं। आज गंगाजी कि विदाई के समय भी सभी गांव के लोग यथासंभव अनाज का दान मंदिर में चढ़ा रहे थे। प्रत्येक वर्ष वे अपनी इस दिव्य पुत्री को पूरे सम्मान के साथ उसकी ससुराल गंगोत्री विदा करते हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते मंदिर के प्रांगण में खूब भीड़ लग गई। सब से पहले गांव के ग्राम देवता-सोमेश्वर की डोली आई और उसे मंदिर के सामने एक चबूतरे पर रख दिया गया, फिर उनकी पूजा अर्चना की गई और सबने उनका आशीर्वाद लिया। इतने में सेना का बैंड आ गया। सेना के जवान भी देवी को विदा करने आते हैं और उनके बैंड की धुनों के साथ ही डोली गंगोत्री के लिए रवाना होती है। हम सभी मंदिर की सीढि़यों पर बैठ कर डोली को सजते देखने लगे। लकड़ी से बनी डोली को लाल वस्त्रों, फूल और पत्तियों से सजाने के बाद उसमें गंगाजी और सरस्वती जी कि प्रतिमाएं स्थापित की जातीं हैं, फिर उसे लाल वस्त्र से ढक कर उस पर चांदी की पेटी बांधी जाती है। डोली को चांदी के छत्रों, फूलों और गंगा तुलसी से सजाया जाता है।

देवता की डोली

अभी डोली को सजा ही रहे थे कि इतने में धराली गांव से भी एक देवता की डोली आ गई, अब गंगाजी का लश्कर तैयार था, हम सब उत्सुकता से गंगाजी के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। हमें अधिक इंतज़ार नहीं करना पड़ा। शीघ्र ही मंत्रोच्चार प्रारंभ हो गया और पंडों के कंधों पर सवार होकर गंगाजी कि डोली मंदिर से बाहर आ गई। हम सभी डोली से आशीर्वाद लेने के लिए आगे बढ़े। फूल और गंगा तुलसी चढ़ा कर हमने भी अन्य सभी के साथ डोली का स्वागत किया। दोनों स्थानीय देवता ने गंगा डोली का स्वागत किया और सेना के बैंड ने संगीत से देवी का अभिवादन किया। सबसे आगे सेना का बैन्ड चला उसके बाद सोमेश्वर की डोली, फिर गंगाजी की डोली और  फिर धराली से आई डोली थी। डोलियों के पीछे गंगोत्री के रावल और उनके पीछे श्रद्धालु जनों की भीड़ थी। जै गंगा मैया की- के उद्घोष के साथ ही जुलूस मुखबा से रवाना हुआ। गांव की महिलाएं और बच्चे, सभी जन अपनी देवी को विदा करने उमड़ पड़े। बैंड की धुन और ढोल की थापों के साथ डोली मुखबा से अपने पहले पड़ाव मार्कंडेय की ओर बढ़ी।

मार्कंडेय जी का दर्शन

मार्कंडेय मुखबा से दो किलोमीटर दूर भागीरथी के किनारे पर स्थित प्राचीन मंदिर है। यहां डोली को रख कर मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है और आसपास के गांव के लोग आकर गंगा जी के दर्शन करते हैं। यहां से डोली फिर झाला के लिए रवाना हुई। अधिकतर लोग मार्कंडेय से वापस लौट गए और कुछ लोग ही यहां से डोली के साथ आगे बढ़े। भागीरथी के किनारे बनी पतली पगडंडी के रास्ते सब झाला पहुंचे, यहां से पुल पार करने के बाद हम गंगोत्री राजमार्ग पर आ गए। रास्ते में जगह जगह रोक कर लोग प्रसाद बांट रहे थे और डोली का स्वागत शंखध्वनि से कर रहे थे। मंदिर के पट खुलने के अवसर पर वहां रहने वाले साधू संन्यासी भी अपनी कुटियों में लौट आए थे और सभी देवी की डोली का स्वागत करने रास्ते पर खड़े थे। चारों ओर से- जै गंगा मैय्या की- और शंखों की आवाज आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे सारी भागीरथी घाटी देवी को नमन कर रही हो।

कोपांग और भैरोघाटी

हमारा अगला पड़ाव कोपांग था जहां सेना का कैंप और मंदिर है। सेना के जवानों ने डोली के साथ आए भक्तों के लिए भंडारे का प्रबंध किया था। पूरी सब्जी और मिठाई का भोजन करने के बाद हम आगे बढ़े। यहां से हमने डोली का साथ छोड़ दिया और गाड़ी से डोली के रात्रि विश्राम स्थल भैरोंघाटी पहुंच गए। यहां पर बड़ी रौनक थी। जगह-जगह पर अलाव जल रहे थे और भंडारे की तैयारी चल रही थी। हम सभी यहां पर रुक कर डोली के आने की प्रतीक्षा करने लगे। शीघ्र ही बैंड, ढोल आदि की आवाज आने लगी और डोली भैरोंघाटी पहुंच गई। डोली को रात के लिए मंदिर के अंदर रख दिया गया। संध्या आरती की गई और प्रसाद बांटा गया। सबने चाय पी और नाश्ता किया इसके बाद रात में सोने का प्रबंध किया जाने लगा।

भैरोघाटी में भैरों जी के मंदिर और एक गढ़वाल मंडल विकास निगम के होटल के अलावा रहने का कोई स्थान नहीं है। होटल अभी बंद था और मंदिर में रहने की जगह भी सीमित थी इसलिए अधिकतर लोग डोली को रात के लिए भैरोंघाटी छोड़ कर  गंगोत्री चल दिए। हमने भी गंगोत्री में रात बिताना ठीक समझा। हम वहां से गंगोत्री के लिए रवाना हो गए। गंगोत्री पहुंचने पर देखा कि एक या दो स्थान छोड़ कर सभी कुछ बंद था। लोग आने वाले कल की तैयारियों में लगे थे और मंदिर के खुलने के साथ शुरू  होने वाली चारधाम यात्रा का इंतज़ार कर रहे थे। उस रात हमें बिड़ला धर्मशाला में रहने की जगह मिली। खाने के लिए कहीं कोई प्रबंध नहीं था, हम ईशावास्यम आश्रम पहुंचे और वहां स्वामी जी की अनुकंपा से हमें भोजन नसीब हुआ।

गंगोत्री

रात में बहुत ठंड थी, हमारे पास गर्म बिस्तर थे इसलिए हमारी रात आराम से कटी। हम अपने गर्म बिस्तरों में बैठकर डोली के साथ मंदिर मे रुके लोगों के विषय में सोच रहे थे कि वे कैसे इतनी ठंड में सो रहे होंगे। आस्था हो तो मनुष्य कुछ भी कर जाता है। ठंड, गर्मी या बरसात सभी सहने की शक्ति आ जाती है। सुबह उठने पर बाहर निकल कर देखा कि कई जगह अभी तक बर्फ थी। धर्मशाला के पीछे भी करीब दो फुट बर्फ जमी थी। हम नहा-धो कर जल्दी से मंदिर के अहाते में पहुंच गए। दिन चढ़ने के साथ ही गंगोत्री में भीड़ बढ़ने लगी। यात्री मंदिर के पट खुलते देखने के लिए एकत्रित हो रहे थे। दस बजे तक गाडि़यों की कतारें लग गईं थीं। सभी डोली का भैरोंघाटी से आने की बाट देख रहे थे। आखिर साढ़े दस बजे डोली आ ही गई। बैंड की धुन और ढोल की थापों ने देवी के अपनी ससुराल और ग्रीष्मकालीन निवास गंगोत्री में आगमन का संदेश दिया। सभी डोली देखने के लिए उमड़ पड़े। डोली को लाकर मंदिर के बारामदे में रख दिया गया।

पट मुहुर्त के अनुसार खोले जाते हैं, मुहुर्त में अभी कुछ समय शेष था इसलिए डोली को बाहर ही रखा गया था। सभी जाकर देवी के दर्शन कर रहे थे और उनका आशीर्वाद ले रहे थे। समय बीतने के साथ ही भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। हम सभी मंदिर में ही बैठकर भीड़ को देख रहे थे। कहीं टीवी वाले थे तो कहीं अखबारवाले, विदेशी भी काफ़ी संख्या में उपस्थित थे। हमारे पास बैठे कुछ लोग तो हिमाचल से पैदल पहाड़ पार करके आए थे। इतने में ढोल-नगाड़ों की आवाज़ आई और साथ ही एक देवता की डोली और उसके साथ एक बस भर कर लोग थे। वे पास के किसी गांव से आये थे और अपने देवता को देवी के दर्शन कराने लाए थे।

मुहुर्त का समय आ ही गया। मंदिर समिति के कार्यालय में हलचल देख कर हम मंदिर के सामने आ कर बैठ गए। ढोल-नगाढ़ों-तुरही की आवाज़ और मंत्रोच्चार के साथ ही मंदिर के पट खुले। सभी ने अखंड ज्योति के दर्शन किए। साथ ही देवी की प्रतिमा को पूरे सम्मान के साथ ही मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कर दिया गया। देवी आखिर अपने ससुराल पहुंच गई। उनके ससुराल पहुंचने के साथ ही एक और यात्रा सीजन का आरंभ हुआ। अगले छह माह तक देवी अपने प्रताप से गंगोत्री में रौनक बनाए रखेंगीं। हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन उनके दर्शन के लिए भारत ही नहीं, बल्कि संसार के कोने-कोने से आकर उनके चरणों से आशीर्वाद लेकर जाएंगे। हम भी उनका आशीर्वाद लेकर वापस अपने घर लौट गए। हमारी यात्रा पूरी हो गई थी।

कब और कैसे

गंगोत्री समुद्र तल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां का मौसम खासा ठंडा रहता है। जाते समय कपड़े उसी हिसाब से लेकर जाएं। गंगोत्री मंदिर के पट सवेरे 6.15 बजे से दोपहर 2 बजे तक और फिर दोपहर 3 बजे से रात साढ़े नौ बजे तक खुलते हैं। मंगलाआरती सवेरे 6 बजे होती है लेकिन उस समय पट बंद रहते हैं। संध्याआरती शाम 7.45 बजे और ठंड बढ़ने पर 7 बजे होती है।

गंगोत्री जाने के लिए सबसे निकट का हवाईअड्डा जौली ग्रांट (ऋषिकेश से 26 किलोमीटर दूर) है। ऋषिकेश (249 किलोमीटर) ही आखिरी रेल स्टेशन भी है। उत्तरकाशी, टिहरी गढ़वाल और ऋषिकेश से गंगोत्री के लिए आसानी से बसें मिल जाती हैं। ठहरने के लिए गंगोत्री में हर किस्म के इंतजाम हैं। लग्जरी होटल, बढि़या होटल, सस्ते होटल, गेस्ट हाउस, धर्मशालाएं, आश्रम- सब कुछ। लेकिन यात्रा के दिनों में यहां भीड़ भी खासी रहती है।

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