एक सैर हवेलियों के नाम

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शेखावटी की हवेलियों को दुनिया की सबसे बड़ी ओपन आर्ट-गैलरी की भी संज्ञा दी जाती है। इन हवेलियों पर बने चित्र शेखावटी इलाके की लोक रीतियों, त्योहारों, देवी-देवताओं और मांगलिक संस्कारों से परिचय कराते हैं। ये इस इलाके के धनाड्य व्यक्तियों की कलात्मक रुचि की भी गवाही देते हैं। यूं तो इस इलाके में चित्रकारी की परंपरा छतरियों, दीवारों, मंदिरों, बावडि़यों और किलों-बुर्जो पर जहां-तहां बिखरी है। लेकिन धनकुबेरों की हवेलियां इस कला की खास संरक्षक बनकर रहीं। अर्ध-रेगिस्तानी शेखावटी इलाका राव शेखाजी (1433-1488 ईस्वी) के नाम पर अस्तित्व में आया। व्यवसायी मारवाड़ी समुदाय का गढ़ यह इलाका कुबेरों की धरती, लड़ाकों की धरती, उद्यमियों की धरती, कलाकारों की धरती आदि कई नाम से जाना जाता है। अब यह इलाका अपनी हवेलियों और ऑर्गेनिक फार्मिग के लिए चर्चा में है।

फ्रेस्को बुआनो

शुरुआती दौर की पेंटिंग गीले प्लास्टर पर इटालियन शैली में चित्रित किए गए हैं, जिस शैली को फ्रेस्को बुआनो कहते हैं। इसमें चूना पलस्तर के सूखने की प्रक्रिया में ही रंगाई का सारा काम हो जाता था। वही इसकी दीर्घजीविता की भी वजह हुआ करती थी। कहा जाता है कि यह शैली मुगल दरबार से होती हुई पहले जयपुर और फिर वहां से शेखावटी तक पहुंची। मुगलकाल में यह कला यूरोपीय मिशनरियों के साथ भारत पहुंची थी। शुरुआती दौर के चित्रों में प्राकृतिक, वनस्पति व मिट्टी के रंगों का इस्तेमाल किया गया था। बाद के सालों में रसायन का इस्तेमाल शुरू हुआ और यह चित्रकारी गीले के बजाय सूखे पलस्तर पर रसायनों से की जाने लगी। जानकार इस कला के विकास को यहां के वैश्यों की कारोबारी तरक्की से भी जोड़ते हैं। हालांकि अब आप इस इलाके में जाएं तो वह संपन्नता भले ही बिखरी नजर न आए लेकिन कुछ हवेलियों में चित्रकारी बेशक सलामत नजर आ जाती है। चित्रकारी की परंपरा यहां कब से रही, इसका ठीक-ठीक इतिहास तो नहीं मिलता। अभी जो हवेलियां बची हैं, उनकी चित्रकारी 19वीं सदी के आखिरी सालों की बताई जाती हैं। यकीनन उससे पहले के दौर में भी यह परंपरा रही होगी लेकिन रख-रखाव न होने के कारण कालांतर में वे हवेलियां गिरती रहीं। लेकिन हवेलियों में चित्र बनाने की परंपरा इस कदर कायम रही कि वर्ष 1947 से पहले बनी ज्यादातर हवेलियों में यह छटा बिखरी मिल जाती है।

शेखावाटी अंचल की हृदयस्थली

राजस्थान के उत्तर-पूर्वी छोर पर स्थित झुंझुनूं जिला शेखावाटी अंचल की हृदयस्थली है। झुंझुनूं जिले का नवलगढ़ कस्बा कला की इस परंपरा की मुख्य विरासत को संजोये हुए है। नवलगढ़ की स्थापना राव शेखाजी के वंशज ठाकुर नवल सिंह जी ने लगभग ढाई सौ साल पहले की थी। कहा जा सकता है कि चित्रकारी की परंपरा भी उसके थोड़े समय बाद ही जोर पकड़ गई होगी। यहां की हवेलियों की दीवारों पर बारहमासे का भी सुंदर चित्रांकन मिलता है। इनमें मध्यकालीन और रीतिकालीन जन-जीवन और राजस्थानी संस्कृति बिखरी है। कुछ हवेलियों पर देवी-देवताओं के चित्र बने हैं तो कुछ पर विवाह संबंधी या फिर लोक पर्वोके अलावा युद्ध, शिकार, कामसूत्र और संस्कारों के चित्र भी। नवलगढ़ ठिकाने के किले में कलात्मक बुर्जे हैं जहां जयपुर और नवलगढ़ के नक्शे और चित्र मिलते हैं। छतों व छतरियों में गुंबद के भीतरी हिस्से में भी गोलाकार चित्र बनाए गए हैं।

नवलगढ़ की हवेलियां

नवलगढ़ की हवेलियां आज भी अपने मालिकों की यश-गाथाएं दुहराती हैं। गोविंदराम सेक्सरिया की हवेली में पांच विशाल चौक, पैंतालीस-पैंतालीस फुट की दो बड़ी बैठकें, पचास कक्ष, हालनुमा दो तहखाने, कलात्मक बरामदे और बारीकियों के कामों से युक्त जालियां हैं। पूर्णतया चित्रांकित चोखाणी की हवेली के पौराणिक चित्र और दरवाजों की शीशम की चौखटों पर किए गए बारीक कलात्मक कार्योको देखकर कोई उसे पुरानी नहीं कह सकता। जयपुरियों और पाटोदियों की हवेलियां दो सौ वर्ष पूर्व निर्मित हैं तो सरावगियों की हवेली उनसे भी पहले की हैं। छावसरियों और पोद्दारों की हवेलियां डेढ़-पौने दो सौ साल पहले की हैं। स्थित यह कि हवेलियां ही हवेलियां, एक के बाद दूसरी हवेली और खुर्रेदार चबूतरों की हवेलियां। रींगसियों की दो चौक की हवेली की दीवारों पर अनगिनत चित्र तो डीडवानियों की हवेली भी प्रसिद्ध। इन हवेलियों के डिजाइन की खूबी यह कि हर हवेली के सामने एक ऊंचा खुर्रा है जिस पर हाथी भी चढ़ सकता है।

मोरारका हवेली

यह हवेली नवलगढ़ की उन चुनिंदा हवेलियों में से है जो थोड़े रखरखाव के कारण देखने लायक बची हैं। सन 1890 में केसरदेव मोरारका की बनाई यह हवेली अब संग्रहालय के रूप में सैलानियों के लिए खुली है जिसकी देखभाल एमआर मोरारका-जीडीसी रूरल फाउंडेशन कर रहा है। हवेलियों के जो हिस्से इतने लंबे काल में मौसम की सीधी मार से बचे रहे, वहां के चित्रों के रंग अब भी ताजा लगते हैं।

भव्यता की डिग्री को छोड़ दिया जाए तो न केवल ज्यादातर हवेलियों की बनावट मिलती-जुलती है-दरवाजे, बैठक, परिंडे, दुछत्तियां, जनाना, पंखे, सबकुछ एक जैसे लगते हैं, चित्रकारी में भी खास अंतर नहीं है। चित्रकारी के अलावा हवेलियों के दरवाजे और भीतर कांच का काम भी आकर्षक रहा है। चित्रकारी मुगल व राजपूत शैलियों का मिला-जुला रूप है। जिन हवेलियों का रखरखाव हो रहा है, वहां इन पेंटिंग को बचाने की कोशिश हो रही हैं। दीवारों की मरम्मत हुई हैं, चित्रों की केमिकल ट्रीटमेंट से देखरेख हो रही है ताकि मौसम, धुएं, मिट्टी, गंदगी आदि को साफ किया जा सके। मोरारका हवेली में जहां पुरानी पेंटिंगों को नया रूप देने की कोई कोशिश नहीं की गई है और उनके मूल रूप को ही बचाए रखने पर जोर है, वहीं पोद्दार हवेली म्यूजियम में चित्रों को उसी तरह के रंगों का इस्तेमाल करके नया रूप दे दिया गया है और इससे वे बिलकुल नई जैसी लगती हैं। दोनों ही तरीकों ने एक ऐसी विरासत को सहेजकर रखा है जो अन्यथा बहुत तेजी से विलुप्त हो जातीं।

कब व कैसे

कड़ाके की गरमियों में इस इलाके में न ही जाएं तो सेहत के लिए बेहतर है। अक्टूबर से मार्च तक यहां का लुत्फ सबसे अच्छे तरीके से लिया जा सकता है। नवलगढ़ झूंझनू जिले में है। आप यहां दिल्ली व जयपुर दोनों जगहों से पहुंच सकते हैं। जयपुर से आएं तो चौमू व रींगस के रास्ते नवलगढ़ आया जा सकता है और यदि दिल्ली से आएं तो सड़क मार्ग पर कोटपूतली तक आकर वहां से नीम का थाना होते हुए नवलगढ़ का रास्ता पकड़ लें।

कहां ठहरें

सैलानियों की आवक को देखते हुए नवलगढ़ में हाल में कई छोटे होटल उभर आए हैं। रूपनिवास कोठी, ग्रांड हवेली रिसॉर्ट जैसे अच्छे व महंगे होटल भी हैं जो उन हवेलियों में ठहरने का आभास देंगे जो देखने सैलानी वहां पहुंचते हैं। इसके अलावा यदि आप ठेठ ग्रामीण मेजबानी का लुत्फ उठाना चाहते हैं तो सहज मोरारका टूरिज्म के रूरल टूरिज्म प्रोजेक्ट में कई गांवों में भी सैलानियों के ठहरने की व्यवस्था है।

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