प्रकृति और संस्कृति की समृद्ध विरासत छत्तीसगढ़

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प्राय: जाने-माने पर्यटन स्थलों के आकर्षण के चलते ऐसे कई महत्वपूर्ण सैरगाह सैलानियों से छूट जाते हैं, जो वास्तव में आदर्श सैरगाह होते हैं। छत्तीसगढ़ की अनोखी सांस्कृतिक विरासत एवं प्राकृतिक विविधता का आधार वहां के ऐतिहासिक स्मारक, प्राचीन मंदिर बौद्धस्थल तथा हरे-भरे पहाड़, झरने, नदियां, वन्य जीवन एवं गुफाएं हैं, जो किसी भी यायावर को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

छत्तीस किलों से छत्तीसगढ़

पिछले वर्ष अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में घूमते हुए जब मैं छत्तीसगढ़ पवेलियन के पर्यटन सूचना पटल पर पहुंचा तो वहां लगे पर्यटन स्थलों के सुंदर चित्र देखकर ऐसा लगा जैसे वे मुझे मौन निमंत्रण दे रहे हों। पटल से पूरी जानकारी प्राप्त करने के कुछ दिन बाद ही मैंने छत्तीसगढ़ भ्रमण का कार्यक्रम बना लिया। प्राचीन समय में छत्तीसगढ़ क्षेत्र को दक्षिण कोसल के रूप में जाना जाता था। प्राचीन इतिहास के अनुसार विंध्याचल के दक्षिण में स्थित कोसल जनपद की उत्तरी कोसल से भिन्नता दर्शाने के लिए इसे दक्षिण कोसल कहते थे। मान्यता यह भी है कि भगवान राम के पुत्र कुश का कौशल राज्य क्षेत्र यही था। 14वीं शताब्दी में जब यहां रायपुर शाखा के कलचूरि राजाओं का प्रभुत्व था, उससे पूर्व ही इसे छत्तीसगढ़ कहा जाने लगा था। इस नाम के संबंध में कुछ भिन्न मत है। कहा जाता है कि यहां कभी 36 किले अर्थात गढ़ थे, इसलिए इस क्षेत्र को छत्तीसगढ़ कहने लगे। कुछ लोगों का मानना था कि उस समय 84 गांवों के समूह को गढ़ कहते थे। तब इस क्षेत्र में करीब 3025 गांव थे। जिस आधार पर यहां 36 गढ़ हुए। एक मत यह भी है कि चेदिवंश के राज्यकाल में यहां का नाम चेदिसगढ़ रख दिया गया था। यह समय के साथ अपभ्रंश होकर छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। यह नाम इस क्षेत्र को कभी भी मिला हो परंतु इस प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा सन 2000 में मिला।

आधार है रायपुर

सभी स्थलों को एक बार में देख पाना संभव न था, इसलिए पहले हमने मध्य छत्तीसगढ़ की यात्रा का निश्चय किया। रायपुर शहर को आधार बना कर मध्य छत्तीसगढ़ आसानी से घूमा जा सकता है। इसलिए मैं छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर के लिए रवाना हुआ। रायपुर में होटल बेवीलोन में मेरे ठहरने की व्यवस्था थी। स्टेशन से मैंने वहीं के लिए टैक्सी पकड़ी। दिल्ली की ठिठुरती ठंड की तुलना में इस शहर का कम सर्द मौसम राहत देने वाला था। दोपहर तक स़फर की थकान दूर कर लेने के बाद मैंने छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े शहर रायपुर को देखने का कार्यक्रम बनाया। राजधानी होने के अलावा यह शहर औद्योगिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी काफी समृद्ध है। कभी यह दक्षिण कोसल की राजधानी था। एक शहर के रूप में इसका इतिहास 9वीं शताब्दी से ज्ञात है। 1830 में एक ब्रिटिश कर्नल ने रायपुर का विस्तार कर नया हिस्सा बसाया था। कुछ बंगले आज भी उस दौर की याद दिलाते हैं। रायपुर के दर्शनीय स्थानों में से एक है महंत घासीदास संग्रहालय। इसका नाम सतनामी संप्रदाय के संस्थापक गुरु घासीदास के नाम पर रखा है। वह कर्मकांड से परे सतनाम स्मरण एवं भजन द्वारा ईश्वर से जुड़ने की प्रेरणा देते रहे हैं। इस राजकीय संग्रहालय में पाषाण युग के औजार, मंदिर द्वारपालों की प्राचीन मूर्तियां, भूमि स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा दर्शनीय हैं।

रायपुर शहर को कभी तालाबों का शहर कहा जाता था। उस समय यहां छोटे बड़े करीब 130 तालाब थे, किंतु आज यहां एक ही महत्वपूर्ण तालाब है। लगभग 600 वर्ष पुराने इस तालाब को बूढ़ा तालाब कहते हैं। यह ऐतिहासिक तालाब यहां के लोगों की आस्था से भी जुड़ा है। शहर के अन्य दर्शनीय स्थलों में हमने महामाया मंदिर, शिवमंदिर, रामकृष्ण मिशन एवं दूधधारी मठ भी देखे। रायपुर में एक विशाल मंदिर शदाणी दरबार सिंधी समाज का मंदिर है। यह मंदिर संत सद्गुरु स्वामी शादराय पीठ के रूप में स्थापित है। सिंध के इस महान संत को भगवान राम के पुत्र लव का वंशज माना जाता है। मंदिर के प्रांगण में बनी भव्य मूर्तियां पर्यटकों को बेहद प्रभावित करती हैं।

कभी राजधानी था सिरपुर

अगले दिन सुबह 8 बजे हमारे गाइड आशीष ने होटल रिसेप्शन से फोन कर कहा कि टैक्सी तैयार है। कुछ देर बाद ही हम लोग स़फर पर निकल पड़े। राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 6 से होकर हम अपने गंतव्य सिरपुर की ओर बढ़ रहे थे। रायपुर से सिरपुर की दूरी 84 किमी. है। सिरपुर महानदी के तट पर बसा एक छोटा-सा कस्बा है, जहां पुरातात्विक महत्व के कई स्मारक मौजूद हैं। किसी समय सिरपुर भी दक्षिण कोसल की राजधानी रह चुका है। तब यह श्रीपुर नाम का एक समृद्ध नगर था। सातवीं-आठवीं शताब्दी में यहां शरभपुरी पांडुवंशीय राजाओं का शासन था, जिन्होंने यहां कई मंदिर और विहारों बनवाए थे।  7वीं शताब्दी में यहां आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने श्रीपुर में 70 मंदिरों व 100 विहारों का उल्लेख किया है। वह श्रीपुर का स्वर्णकाल था। कालांतर में कई मंदिर एवं विहार काल के गर्त में समा गए। अब यहां गिने-चुने मंदिर तथा विहारों के अवशेष बचे हैं।

सिरपुर के प्राचीन मंदिरों में लक्ष्मण मंदिर प्रमुख है। स्थापत्य कला का यह अनूठा शिल्प ईटों से निर्मित है। प्राचीन मंदिरों में ईटों से बने मंदिर कम ही होते थे। यह देश का दूसरा प्राचीनतम मंदिर है जो ईटों से बना है। यह भगवान विष्णु को समर्पित है। मंदिर के शिखर में एक से अधिक निर्माण शैलियों की झलक दिखती है, विशेषकर उड़ीसा शैली की। इसका निर्माण पंचरथ शैली में किया गया है। जिसमें मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह है। इसकी दीवारों पर चैत्य, गवाक्ष, वातायन, कीर्तिमुख, कर्ण आमलक आदि प्रभावशाली लगते हैं। प्रवेशद्वार पर विष्णु के शेषशायी रूप के साथ कुछ अवतारों का मोहक चित्रण है। तीन ओर की दीवारों पर तीन छोटे-छोटे दरवा़जे बने हैं। ईटों के बने ये दरवा़जे मंदिर की शोभा बढ़ाते हैं। लक्ष्मण मंदिर से कुछ दूर एक अन्य मंदिर के अवशेष पाए गए हैं। एक टीले के नीचे दबा रहा यह मंदिर अभी पूरी तरह अनावृत्त नहीं हुआ है। पुरातत्व विभाग द्वारा इसके संरक्षण का कार्य अभी चल रहा है। लक्ष्मण मंदिर के पीछे एक संग्रहालय भी है। जहां हमें उत्खनन में प्राप्त कई मूर्तियां देखने को मिलीं।

वहां से हम बौद्ध विहारों की ओर चल दिए। सिरपुर में अब दो बड़े विहारों के खंडहर शेष हैं। इनमें से एक है आनंद प्रभु कुटी विहार। विहार में पद्मासन मुद्रा में स्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा वास्तव में दर्शनीय है। बौद्धभिक्षु आनंद प्रभु के लिए बना मंडप भी यहां सुरक्षित है। दूसरा स्वस्तिक विहार कहलाता है। स्वस्तिक आकार में निर्मित इस विहार में ध्यान मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थित है। सिरपुर के विहार भी ईटों से ही निर्मित हैं। आसपास के क्षेत्र में कुछ और छोटे ऐतिहासिक मंदिर और विहारों के अवशेष देखे जा सकते हैं। विहारों से कुछ दूर महानदी के तट पर गंधेश्वर मंदिर है। कहते हैं इस मंदिर का वातावरण प्राकृतिक रूप से सुगंधित बना रहता है। इसीलिए इसे गंधेश्वर मंदिर कहा जाता है। मान्यता है कि यह सुगंध शिवलिंग से आती है, जो प्राकृतिक रूप से प्रकट हुआ है। गर्भगृह के द्वार पर शिव परिवार, कैलाश पर्वत, रावण द्वारा पर्वत हिलाने का प्रयास तथा कुछ अन्य मूर्तियां उकेरी गई हैं। स्तंभों पर पालि भाषा में कुछ शिलालेख भी मौजूद हैं। मुख्य मंदिर के सामने कुछ छोटे मंदिर भी हैं।

दो शहर मंदिरों के

सिरपुर से आगे बढ़े तो हम आरंग पहुंचे। इसे मंदिरों की नगरी कहते हैं। यहां के प्रमुख मंदिरों में 11वीं-12वीं सदी में बना भांडदेवल मंदिर है। यह एक जैन मंदिर है। इसके गर्भगृह में तीन तीर्थकरों की काले ग्रेनाइट की प्रतिमाएं हैं। महामाया मंदिर में 24 तीर्थकरों की दर्शनीय प्रतिमाएं हैं। बाग देवल, पंचमुखी महादेव, पंचमुखी हनुमान तथा दंतेश्वरी देवी मंदिर यहां के अन्य मंदिर हैं। दोपहर हो चली थी। हमने मार्ग में ही भोजन किया और मंदिरों के ही एक और नगर राजिम की ओर बढ़ गए।

राजिम पहुंचकर हमें ज्ञात हुआ कि यह स्थान कभी छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र था। आज यह आस्था का बड़ा केंद्र है। महानदी, पैरी तथा सोंदूर नदी के संगम पर स्थित राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। राजिम में कई देवालय हैं, जो 8वीं से 14वीं सदी के मध्य बने माने जाते हैं। राजीव लोचन मंदिर इनमें प्रमुख है। इसका निर्माण नलवंशी नरेश द्वारा 8वीं सदी में करवाया गया था। यह भगवान विष्णु का मंदिर है। गर्भगृह में उनकी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है। यह मंदिर भी ईटों से निर्मित है। इसके आयताकार महामंडप में कई सुंदर मूर्तियां सजी हैं। इसके भित्तिस्तंभ भी अलंकृत है। इसी तरह अंतराल में भी अनेक भव्य मूर्तियां हैं। राजीव लोचन मंदिर का प्राकार हमें काफी विशाल प्रतीत हुआ। प्राकार के चारों कोनों पर वामन, वराह, नृसिंह तथा ब्रदीनाथ जी के मंदिर बने हैं। ये उपमंदिर मुख्य मंदिर के अनुषंशी मंदिर हैं। राजिम के अन्य दर्शनीय मंदिर हैं राजेश्वर मंदिर, दानेश्वर मंदिर, रामचंद्र मंदिर, पंचेश्वर महादेव मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, भूतेश्वर मंदिर, राजिम तेलिन मंदिर एवं सोमेश्वर महादेव मंदिर। संगम स्थल पर एक छोटा-सा टापू है। वहां स्थित कुलेश्वर मंदिर भी महत्वपूर्ण है। एक अष्टभुजी चबूतरे पर बने इस मंदिर में स्वयंभू शंकर की पंचमुखी मूर्ति स्थापित है। यहीं दुर्गा, पार्वती तथा भैरव की मूर्तियां भी हैं। माघ पूर्णिमा पर यहां एक मेले का आयोजन होता है।

महाप्रभु का जन्म स्थल

राजिम से 14 किमी दूर चंपारण नामक एक अन्य धार्मिक स्थल है। यह भी महानदी के तट पर ही स्थित है। चंपारण 15वीं शताब्दी के महान भारतीय दार्शनिक एवं धर्मगुरु महाप्रभु बल्लभाचार्य की जन्मस्थली है। उन्होंने भागवत पुराण के आधार पर शुद्ध द्वैत मतानुसार पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया था। चंपारण में हमने बल्लाभाचार्य के अनुयायियों द्वारा बनवाया गया भव्य मंदिर भी देखा। इस मंदिर के निकट ही चंपकेश्वर महादेव मंदिर है। इसमें स्थापित शिवलिंग तीन भागों में विभाजित है। जनवरी-फरवरी में गुरु बल्लभाचार्य की जयंती पर यहां हर साल भव्य समारोह होता है।

मध्य छत्तीसगढ़ को धार्मिक एवं पुरातात्विक महत्व के स्थलों का गढ़ कहा जाए तो गलत न होगा। अगले दिन प्रसिद्ध तीर्थ मां बमलेश्वरी मंदिर देखने चलना था। हमारे गाइड ने बताया कि राजनांदगांव जिले में डोंगरगढ़ नामक स्थान पर एक पहाड़ी पर वह मंदिर स्थित है। डोंगरगढ़ वैसे मुंबई-हावड़ा रेल लाइन पर स्थित है। हम सड़क मार्ग द्वारा दुर्ग-भिलाई एवं राजनांदगांव होकर डोंगरगढ़ पहुंचे। पहाड़ी पर स़फेद मंदिर दूर से ही ऩजर आने लगा।

मां बमलेश्वरी देवी का मंदिर सिद्ध पीठ है। यह छत्तीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और उड़ीसा के लोगों की भी आस्था का केंद्र है।  महाराज विक्रमादित्य के काल में डोंगरगढ़ के राजा कामसेन ने यह मंदिर बनवाया था। मंदिर तक जाने के लिए एक ओर सीढ़ीनुमा मार्ग बना है तथा दूसरी ओर रोपवे द्वारा भी पहुंच सकते हैं। पहाड़ी के नीचे एक छोटी सी झील है। बमलेश्वरी देवी का एक छोटा मंदिर पहाड़ी के नीचे भी बना है। आसपास अन्य मंदिरों में श्री बजरंग मंदिर, रणचंडी मंदिर, तापसी मंदिर, शीतला माता मंदिर, श्री दंतेश्वरी मंदिर प्रमुख है। नवरात्रों में यहां भक्तों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। यहां से कुछ ही दूरी पर प्रज्ञागिरी पहाड़ी पर जब हम पहुंचे तो वहां भगवान बुद्ध की धातु की प्रतिमा देखने को मिली। करीब 30 फुट ऊंची यह प्रतिमा दूर से ही चमकती दिखती है। इस अत्यंत सौम्य प्रतिमा की स्थापना इंडो-जापान बुद्धिस्ट सोसाइटी द्वारा की गई थी। यह स्थान बौद्ध धर्म के अनुयायियों की आस्था का केंद्र भी है। डोंगरगढ़ से वापस जब हम रायपुर पहुंचे तो दोपहर बीत चली थी। उस दिन हम और कहीं नहीं गए। असल में आशीष ने बता दिया था कि शाम को एक सांस्कृतिक कार्यक्रम है और हमने वह अवसर गंवाना ठीक न समझा।

पांडवानी व करमा की भूमि

इस सांस्कृतिक संध्या में हम शामिल न होते तो छत्तीसगढ़ की समृद्ध लोकपरंपराओं की अनुपम झांकी न देख पाते। छत्तीसगढ़ में लोकगीत, संगीत, नाट्य के सहारे लोकमंचीय अभिव्यक्ति की समृद्ध परंपरा है। यहां के ग्रामीण एवं आदिवासी जीवन में रची-बसी विधाएं त्योहारों व उत्सवों से जुड़ी रही हैं। ये अनोखी विधाएं आज लोकसंस्कृति प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र हैं। पांडवानी, जिसके लिए तीजन बाई मशहूर हैं, यहीं की अनोखी विधा है। इसमें गीत-संगीत में पिरोई गई पौराणिक गाथा तथा वाचिक-आंगिक अभिनय का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह महाभारत के पात्रों की शौर्यगाथाओं पर आधारित होती है।

इसी कार्यक्रम में हमें छत्तीसगढ़ के नृत्यों का सिरमौर कहा जाने वाला करमा भी देखने को मिला। यह नृत्य इस अंचल के निवासियों में हर्ष-उल्लास और उमंगों के रंग तो बिखेरता ही है, पर्यटकों को भी बेहद प्रभावित करता है। मांदर की थाप पर थिरकते नर्तकों की छलकती मस्ती इस नृत्य की खासियत है। यहां इसकी विभिन्न शैलियां होती हैं। पंथी नृत्य यहां का एक और मोहक लोकनृत्य है। यह विश्व के सबसे ते़ज नृत्यों में गिना जाता है। भारी मन के मर्म को दर्शाने वाली प्रस्तुति सुआ गीत तो मिलन के बाद बिछोह को मानव जीवन का यथार्थ मानती है। छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों की ऐसी मोहक प्रस्तुतियों ने हमारी उस शाम को यादगार बना दिया।

एक और खजुराहो

अगले दिन हमारा लक्ष्य था छत्तीसगढ़ का खजुराहो। कवर्धा होते हुए हमें भोरमदेव पहुंचना था। गोंड जनजाति के उपास्य भोरमदेव का मंदिर हरी-भरी मैकाल पहाडि़यों के मध्य स्थित है। यह दक्षिण कोसल की वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में शास्त्रीय विधान के अनुरूप मंडप अंतराल और गर्भगृह निर्मित है। शिखर पर कलश स्थापित है। मंदिर के तीन द्वार हैं, जिन पर अर्धमंडप बने हैं। हर अर्धमंडप में चार स्तंभ है। मंदिर के गर्भगृह पर चमकदार काला पत्थर लगा है। गर्भगृह में छोटा सा शिवलिंग स्थापित है। भोरमदेव मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसकी बाह्य दीवारों पर बनी मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों में कई मिथुन मूर्तियां हैं, जिनके कारण इसे छत्तीसगढ़ के खजुराहो की संज्ञा दी जाती है। तीन पंक्तियों में बनी इन मूर्तियों में मिथुन दृश्यों के अलावा विभिन्न देवी-देवता, कृष्ण लीला, नायक नायिका, अष्ट दिगपालों के साथ कुछ युद्ध दृश्यों का चित्रांकन भी है। मंदिर के भद्ररथ पर भी कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाएं उकेरी गई हैं। इनमें चामुंडा देवी, महिषासुर मर्दिनी, नृतगणपति एवं त्रिपुरान्तक वध की प्रतिमाएं विशेष रूप से कलात्मक एवं मनमोहक हैं।

मंदिर परिसर के सामने एक सुंदर झील है, जो इस स्थान को अलग ही भव्यता देती है। इसके बाद हम कुछ दूर स्थित दो अन्य मंदिर देखने चल दिए। इनमें से एक मंदिर मांडवा महल कहलाता है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर दरअसल एक विवाह मंडप के समान है, जिसमें 16 स्तंभ लगे हैं। यह मंदिर आकार में काफी छोटा है। इसकी बाहरी दीवारों पर 50 से अधिक मिथुन मूर्तियां बनी हैं। इन मूर्तियों में हमें भोरमदेव मंदिर पर बनी मूर्तियों से कलात्मकता तनिक भी ऩजर नहीं आई। दूसरा मंदिर हेकरी महल के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर आकार में सबसे छोटा है तथा इसके गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। ईटों द्वारा निर्मित इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर शिव-पार्वती तथा चतुर्भुज गणेश की प्रतिमा है। अब भोरमदेव मंदिर के श्रृंगारिक वास्तुशिल्प ने विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करना आरंभ किया है, अत: प्रशासन ने इनके संरक्षण के प्रति ध्यान देना आरंभ किया है। हमने मार्ग में कवर्धा के राजाओं का पुराना महल भी देखा। यह अब एक होटल के रूप में तब्दील किया जा चुका है।

शैव साधना स्थल

वहां से हमें ताला जाना था। जिसके लिए हमें राजमार्ग पर स्थित सिमगा तक वापस आना पड़ा। ताला गांव पुरातत्व महत्व के देवरानी-जेठानी मंदिरों के कारण विख्यात है। ये मंदिर 1986 में ही अनावृत्त किए गए। एक विशाल परिसर में स्थित ये मंदिर आज खंडहर अवस्था में है। किंतु 5वीं-6वीं शताब्दी के आसपास बने यह मंदिर पुरातत्व महत्व तथा यहां से प्राप्त अनोखी मूर्तियों के कारण दर्शनीय बन गए। लाल पत्थर से बना जेठानी मंदिर शैव संप्रदाय के उपासकों का साधनापीठ माना जाता है। दक्षिणाभिमुख मंदिर की स्थापत्य शैली कुछ विशिष्ट है। मंदिर के तल विन्यास में अर्धमंडप एवं गर्भगृह का धरातल उतरोत्तर ऊंचा होता गया है। दीवारों तथा स्तंभों पर अनोखी भाव-भंगिमा वाली मूर्तियों का अंकन देखने को मिलता है। देवरानी मंदिर भी प्राचीन शिव मंदिर है। इसके द्वार तथा शाखाओं पर बनी मूर्तियों में लक्ष्मी, उमा, महेश्वर, शिव-पार्वती, कीर्तिमुख मिथुन दंपती आदि का खूबसूरत अंकन है।

मंदिरों की खोज के साथ ही इस क्षेत्र से कई अनोखी मूर्तियां, शिलाखंड, लघुफलक, बाण फलक, मृणमयी वस्तुएं एवं सिक्के मिले थे। यहां से प्राप्त एक अजीब मूर्ति तो पर्यटकों ही नहीं, पुरातत्वप्रेमियों के लिए भी कौतूहल का विषय है। मूर्ति को देख यह कह पाना कठिन है कि यह किस देवता या देवपुरुष की मूर्ति होगी। इस प्रतिमा में एक शरीर पर दस मुख हैं। एक मुख तो यथास्थान है। दो मुख वक्ष स्थल पर बने हैं, एक मुख पेट पर, दो मुख जांघों पर, दो मुख घुटनों पर तथा दो मुख पृष्ठ भाग में बने हैं। इस अद्भुत मूर्ति में विचित्र कल्पना तथा कलात्मकता का संगम ऩजर आता है। मूर्ति में पशु पक्षियों का चित्रण भी किया गया है। बहरहाल मूर्ति को देख मन में उपजे कौतुक को शांत किये बिना ही हमें ताला से प्रस्थान करना पड़ा। वहां से हम रायपुर की ओर ही वापस चल दिए। हालांकि बिलासपुर यहां से निकट ही था। किंतु वहां पहुंचते हुए दिन छिप जाता और हम वहां के दर्शनीय स्थल नहीं देख पाते। यही सोच कर हमें रायपुर आना पड़ा। अगले दिन हमने रायपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान करना था, किंतु लग रहा था कि अभी तो मध्य छत्तीसगढ़ में ही बहुत कुछ बाकी है खोजने के लिए। वास्तव में पर्यटकों के लिए खास है यह पर्यटन स्थल। य़कीनन हमें फिर आना होगा छत्तीसगढ़ के इस अद्भुत संसार की ओर।

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