मलेशिया: एक आलम मस्ती का

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नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से जिस वक्त हमने उड़ान भरी रात के 12 बज रहे थे। मौसम की गड़बड़ी के कारण हमारी फ्लाइट देर हो गई थी। सवा पांच घंटे की यात्रा के बाद ही जब हम कुआलालम्पुर पहुंचे उस वक्त मलेशियाई समय के अनुसार सुबह के आठ बज चुके थे। मलेशिया टूरिज्म की ओर से तैनात भारतीय मूल का गाइड सैम हमें एयरपोर्ट पर ही मिला। उसके साथ सड़क मार्ग से करीब डेढ़ घंटे के सफर के बाद हम सीधे होटल पहुंचे। नई जगह पर घूमने-फिरने की तेजी और नई-नई चीजें देखने की उत्सुकता तो सबको होती ही है। इस उत्सुकता ने मेरी रास्ते की थकान छुड़ा दी थी। वैसे भी जिस बेहतरीन सड़क और आबो-हवा से होकर हम आए थे, उसमें थकान लगती भी नहीं। चौड़ी सड़कें और हरियाली भरे रास्ते मलेशिया की खासियत हैं। सभी साथी बड़ी तेजी से तैयार हुए और दोपहर के एक बजे खा-पीकर शहर घूमने निकल पड़े।
जुड़वां मीनारों के शहर में
मलेशिया आए हुए किसी भी पर्यटक की तरह इच्छा तो हमारी भी सबसे पहले कुआलालम्पुर का पर्याय बन चुके पेट्रोनास टॉवर को ही देखने की थी, लेकिन यह संभव हो नहीं सका। गाइड ने हमें पहले केएल टॉवर चलने का सुझाव दिया और जैसी तारीफ उसने की उसके चलते हमने उसकी बात मान भी ली। वहां जाने के बाद लगा कि वह वाकई ठीक कह रहा था। एक छोटी सी पहाड़ी पर बने 421 मीटर ऊंचे इस टॉवर को स्थानीय लोग मीनारा कुआलालम्पुर कहते हैं। गाइड ने टिकट लिया और हम अंदर गए। बमुश्किल 40 सेकंड में ही हम 400 मीटर की ऊंचाई पर पहुंच चुके थे। ऊपर गोल घेरे में व्यू प्वाइंट जैसा बना हुआ है, जो चारों तरफ से शीशे से पैक्ड है। पूरे कुआलालम्पुर शहर का नजारा वहां से आसानी से लिया जा सकता है। यहां खड़े होकर देखने पर पेट्रोनास टॉवर खुद से छोटा नजर आता है। पेट्रोनास हम इसके बाद गए। हैरत होती है यह जानकर कि 451.9 मीटर ऊंचा यह ट्विन टॉवर सिर्फ स्टेनलेस स्टील और शीशे का बना हुआ है। दोनों टॉवरों को जोड़ने के लिए इसकी 41वीं मंजिल पर बने पुल पर चढ़कर देखें तो ऐसा लगता है गोया दुनिया की सबसे ऊंची जगह पर हम ही खड़े हैं।

वैसे जुड़वां टॉवरों वाला पेट्रोनास अकेला निर्माण नहीं है। यहां ज्यादातर इमारतें जुड़वा टॉवरों के रूप में बनी हुई हैं। हो सकता है कि यह पेट्रोलियम विभाग के इस मुख्यालय यानी पेट्रोनास का ही प्रभाव हो। पर अब तो कहा जा सकता है कि कुआलालम्पुर असल में जुड़वां मीनारों का शहर है। इसके बाद हमें मुख्य आयोजन ईयर एंड सेल से संबंधित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होना था। इसलिए हम होटल लौटे और तैयार होकर फिर कार्यक्रम का आनंद लेने चले। अधिकतर मलय और चीनी भाषा की प्रस्तुतियों वाले इस कार्यक्रम में एक हिंदी गीत पर भी गाना-बजाना हुआ, जो हमारे लिए एक प्रीतिकर अनुभव था। इंटरनेशल मीडिया के लिए खास आयोजित इस कार्यक्रम में 23 देशों से 250 पत्रकार आए हुए थे। अगले दिन भी हमें केएल में ही घूमना था। इस दिन हम सुबह थोड़ा जल्दी तैयार होकर निकले और सबसे पहले मलेशिया की राष्ट्रीय मस्जिद देखने गए। वहां से निकले सीधे चिडि़या घर।
बर्ड पार्क
चिडि़या घर यहां बर्ड पार्क नाम से जाना जाता है, जो वास्तव में चिडि़या घर ही है। पक्षियों की कितनी दुर्लभ प्रजातियां यहां हैं, यह गिनना मुश्किल है। चिडि़या घर के बाद हम मलेशिया का राष्ट्रीय स्मारक देखने गए। यह स्मारक उन सैनिकों की याद में बनाया गया है जो यहां सन 1950 में हुए एक संघर्ष के दौरान शहीद हो गए थे। इस बीच गाइड ने हमें बताया कि यहां एक ऐसा एक्वेरियम भी है जिसमें समुद्र की बहुत सारी मछलियां हैं। हम उसे देखने का लोभ छोड़ नहीं पाए। शीशे की दीवारों के भीतर कैद शार्क, स्टारफिश, टॉरपीडो जैसी मछलियां और समुद्री कछुए देखकर हम दंग रह गए। जमीन के नीचे एक लंबी सी सुरंगनुमा गैलरी में मौजूद यह एक्वेरियम किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम है। वहां से निकल कर हम रेलवे स्टेशन होते हुए सेंट्रल मार्केट आए। दुनिया भर की तमाम चीजें यहां वाजिब दाम पर खरीदी जा सकती हैं।
कैमरून के चाय बागान
अगले दिन हमें कैमरून हाइलैंड्स के लिए निकलना था। केएल से सड़क मार्ग के जरिये यह करीब तीन घंटे की यात्रा है। प्राकृतिक स्थलों के पर्यटन के शौकीन लोगों के लिए यह एक रोचक जगह है। कैमरून हाइलैंड्स के चाय बागान भारतीयों को असम की याद दिलाते हैं। इसके अलावा यहां स्ट्राबेरी फा‌र्म्स और रोज गार्डेन भी है। रात को हम वहीं रुके। अगले दिन पूरब का मोती कहा जाने वाला मलेशिया का सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल पेनांग हमारे स्वागत के लिए तैयार था। हाइलैंड से हम सुबह निकल पड़े। चार घंटे की यात्रा के बाद स्ट्रेट्स ऑफ मलक्का समुद्र पर बना 14 किमी लंबा पुल पार करते हुए हम पेनांग पहुंचे तो दोपहर हो चुकी थी। मूलत: समुद्रतट के नाते प्रसिद्ध इस शहर को हिंदू व बौद्ध मंदिरों और मस्जिदों के लिए भी जाना जाता है। समय कम होने के कारण हम मंदिर-मस्जिद तो नहीं घूम सके, लेकिन रात्रि विश्राम समुद्रतट के किनारे ही एक होटल में निश्चित होने के कारण हमने समुद्रतट का नजारा जरूर ले लिया। दिन में हमने वहां का वार म्यूजियम घूमा। यह संग्रहालय मलेशिया में ब्रिटिश शासन की यादगार है। करीब 20 एकड़ क्षेत्रफल में फैला यह मूल रूप से एक किला है। इसे 1930 में अंग्रेजों ने दुश्मनों से देश की रक्षा के लिए बनवाया था। इसमें मिलिटरी टनेल्स हैं, उस वक्त इस्तेमाल की गई कई तोपें हैं, सेना के दफ्तर और बैरक हैं। इसके अलावा भी कई चीजें हैं जिन्हें देखकर उन दिनों की युद्ध पद्धति को समझा जा सकता है।
मिलना ओरांग ओटान से
हमें अगले दिन बुकिट मेराह के लिए निकलना था। यह एक रिसॉर्ट है। पेनांग से करीब तीन घंटे की यात्रा के बाद हम बुकिट पहुंचे। मौज-मस्ती के लिए मलेशिया जाना हो तो इसे अपनी योजना में जरूर शामिल करना चाहिए। बिलकुल प्राकृतिक वातावरण में बने इस रिसॉर्ट में आप खुले गगन के नीचे स्वच्छ हवा और धूप तो पा ही सकते हैं, कुछ मामलों में अपनी जानकारी भी बढ़ा सकते हैं। किताबों में कई बार पढ़े गए जंतु ओरांग ओटान को हमने यहीं देखा। इसे देखकर ही यकीन होता है कि डार्विन गलत नहीं रहे होंगे और मनुष्य का पूर्वज वास्तव में बंदर रहा होगा। दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में पाया जाने वाला यह जंतु यहां बड़े जतन से पाला गया है। इसके बच्चे को तो जिस नफासत से यहां पाला गया है, वैसे कम आदमी ही अपने बच्चे पाल पाते हैं। रिसॉर्ट की सीमा में जहां इसे संरक्षित किया गया है उस जगह का नाम ही ओरांग ओटान आइलैंड है। वैसे वाटर पार्क और ईको पार्क भी देखने लायक हैं।
भगवान मुरुगन के दर्शन
हमारा अगला दिन जेंटिंग में बीतना था। मलेशिया के भीतर इसे मनोरंजन का शहर कहते हैं। यहां थीम पार्क और मनोरंजन के कई अन्य साधनों के अलावा कैसिनो भी हैं। इस छोटे से शहरनुमा रिसॉर्ट में पूरे साल कोई न कोई कार्यक्रम चलता ही रहता है। इस रिसॉर्ट में करीब सात हजार कमरे हैं। यहां दिन-रात का कोई मतलब नहीं है। ऐसा लगता है गोया यहां हर वक्त और हर तरफ जुटी भीड़ आपसे कह रही हो कि यहां घूमने आए हैं, सोने नहीं। भरपूर घूमिए और मौज-मस्ती करिए। मलेशिया में घुमक्कड़ी का यह हमारा अंतिम दिन था। अगले दिन हमें वहां से निकल कर वापस कुआला लम्पुर आना था। वैसे तो 300 किमी की दूरी वाली यह यात्रा सिर्फ चार घंटे की है, लेकिन बीच में हमने एक मंदिर का दर्शन भी किया। भगवान कार्तिकेय को समर्पित यह मंदिर एक गुफा में है। यहां इसे आम तौर पर मुरुगन मंदिर के नाम से जाना जाता है। वस्तुत: ‘मुरुग’ अर्थात मोर की सवारी करने के कारण दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय को मुरुगन नाम से भी जाना जाता है। मलेशिया में कई शताब्दियों से रह रहे भारतीयों में तमिल और मलयाली लोगों की बहुलता है और इसीलिए यहां उन्हें आम तौर पर मुरुगन के रूप में जाना जाता है। यह गुफा भूतल से करीब 400 फुट ऊंची एक पहाड़ी पर है। तमिल समुदाय द्वारा बनवाया गया यह मंदिर 113 साल पुराना है। यहां भगवान कार्तिकेय की 104 फुट ऊंची प्रतिमा लगी हुई है। वहां भगवान कार्तिकेय के दर्शन-पूजन के बाद हम कुआला लम्पुर पहुंचे। मलेशिया की नई राजधानी पुत्राजया, जो कुआला लम्पुर की ट्विन सिटी जैसा है, की भी थोड़ी घुमक्कड़ी की गई और फिर हवाई अड्डे के लिए निकल पड़े। पूरी घुमक्कड़ी के दौरान हमने वहां शांति और सौहार्द के साथ चारों तरफ सहज मस्ती का जो आलम देखा, उसे भुलाया नहीं जा सकता। मलेशियाई समय के अनुसार शाम सात बजे हम वापस अपने देश के लिए उड़ चले थे। वहां की स्वच्छ आबो-हवा, चप्पे-चप्पे पर सफाई, अनुशासन के प्रति आम जनता का लगाव और खास तौर से पर्यटकों के प्रति उनके दोस्ताना रवैये का एहसास .. अब भी हमारे साथ है।
कैसे पहुंचें
नई दिल्ली से एयर इंडिया तथा कुछ अन्य विमानन सेवाओं की सीधी उड़ानें कुआला लम्पुर के लिए हैं।
साइटसीन
मलेशिया के भीतर की घुमक्कड़ी कई तरह से की जा सकती है। ट्रेन, बसें, टैक्सियां और कारें यहां खूब चलती हैं और आसानी से इनकी सेवाएं ली जा सकती हैं।
कब जाएं
मलेशिया जाने के लिए हर मौसम उपयुक्त है। न तो यहां बहुत ठंड पड़ती है और बहुत ज्यादा गरमी ही। तापमान यहां हमेशा 21 से 32 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।
वीजा
भारतीय पर्यटकों को मलेशिया में प्रवेश के लिए वीजा नई दिल्ली स्थित मलेशिया हाई कमीशन से मिल सकता है। वीजा फीस 650 रुपये है।
कहां ठहरें
ठहरने के लिए मलेशिया के सभी शहरों में अच्छे होटल हैं।

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