प्रकृति का स्वर्ग पचमढ़ी

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सतपुड़ा की वनाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में बसा पचमढ़ी मध्य प्रदेश का एकमात्र पर्वतीय स्थल है। पचमढ़ी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रकृति को अनायास ही भान हो कि भारत के हृदय में बसी इस धरती पर पर्वतीय अंचल का अभाव है। शायद इसीलिए प्रकृति ने एक विशाल पठार पर स्थित पचमढ़ी को बड़ी तन्मयता से नैसर्गिक श्रृंगार के हर अलंकरण से संवारा है। यहां हरियाली के आलिंगन में लिपटी पहाडि़यां हैं, घाटियां हैं, दर्रो  की भूल-भुलैया है, चांदी के समान चमकते झरने हैं, आकाश जैसे दिखने वाले नीले जलाशय हैं और प्राणदायक वायु प्रदान करते वन-उपवन हैं। इन सबसे बढ़कर प्रकृति की बनाई हुई वे पवित्र गुफाएं हैं, जिनमें ईश्वर के दर्शन होते हैं। यहां आने वाले सैलानी प्रकृति के मोहपाश में इस कदर उलझ जाते हैं कि उससे निकलने का मन ही नहीं करता। पचमढ़ी की ऐसी ही रमणीयता को आत्मसात करने की चाह हमें भी यहां खींच लाई थी।

होशंगाबाद जिले में स्थित पिपरिया नामक स्थान तक तो हम रेल से पहुंचे। वहां से सर्पाकार पहाड़ी सड़कों का करीब दो घंटे का सफर तय कर जब हम पचमढ़ी पहुंचे तो दोपहर हो चुकी थी। सफर की थकान कोई खास नहीं थी, इसलिए कुछ देर बाद ही हमारा मन होटल की चारदीवारी से बाहर निकलने को बेचैन होने लगा। किसी नए पर्यटन स्थल पर घूमने का एहसास और सुहानी जलवायु का आनंद लेते हुए हम काफी देर तक वहां की साफ-सुथरी सड़कों पर चहलकदमी करते रहे। हमारी ही तरह कई अन्य पर्यटक भी वहां पर्वतीय हवाओं का आनंद ले रहे थे। इसी दौरान हमने पचमढ़ी की घुमक्कड़ी के लिए साइटसीन टूर भी बुक करा लिया।

यहां के दर्शनीय स्थल देखने के लिए जीप व टैक्सियां तो उपलब्ध होती ही हैं, पर्यटक चाहें तो स्कूटर या साइकिल किराये पर लेकर भी सैर-सपाटे का मजा ले सकते हैं। हमने जीप से घूमने का मन बनाया था। शाम होते ही मौसम और सुहाना हो गया था और हवा में ठंडक बढ़ने लगी थी। जब हम होटल वापस आए उस समय अंधेरा हो चला था और लाइट जगमगाने लगी थी।

जटाएं शंकर की

सुबह निर्धारित समय पर जीप हमें लेने आ पहंुची। जीप में हमें इंदौर से आए एक युगल के साथ शेयर करना था। ड्राइवर ने सहयात्रियों से हमारा परिचय करवाया। साइटसीन के दौरान ड्राइवर ही हमें गाइड के रूप में सभी जानकारियां देने वाला था। सबसे पहले हम जटाशंकर पर रुके, जो एक पवित्र गुफा है। इस गुफा में कई सीढि़यां उतरकर नीचे पहुंचने पर भगवान शिव की प्रतिमा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव जब भस्मासुर से बचने के लिए भाग रहे थे तब वे यहीं छिपे थे। आसपास बरगद के पेड़ों की झूलती शाखाएं तथा यहां की रॉक फॉर्मेशन ऐसा आभास देती है जैसे चारों तरफ भगवान शिव की जटाएं फैली हुई हों। शायद इसीलिए इस स्थान का नाम जटाशंकर पड़ा होगा। यहां शिवलिंग पर झुकी चट्टान तो ऐसी प्रतीत होती है मानो विशाल नाग ने अपना फन फैला रखा हो।

गुफा से कुछ आगे एक कुंड है। यह कुंड जम्बुद्वीप धारा का स्त्रोत भी है। जटाशंकर से हम बी फाल की ओर चल दिए। बी फाल का नाम जमुना प्रपात भी है। जीप से उतरकर हमें काफी दूर तक पैदल ही जाना पड़ा। शायद प्रपात के आसपास के पर्यावरण को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से वहां तक सड़क मार्ग नहीं बनाया गया है। वैसे लाल मिट्टी के कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ते हुए हमें कोई कठिनाई महसूस नहीं हुई। करीब 150 फुट की ऊंचाई से गिरता जमुना प्रपात अत्यंत मनोहारी झरना है। हम झरने के सामने की चट्टानों पर बैठ कुदरत की उस नेमत को देर तक निहारते रहे। हवा के साथ उड़ कर आते झरने के जलकण हमें बेहद रोमांचित कर रहे थे। उड़ते जलकणों पर सूर्य की किरणें पड़ने से वहां का वातावरण कभी-कभी इंद्रधनुषी हो जाता था। वास्तव में झरने की खूबसूरती ऐसी थी कि पर्यटक उसके सम्मोहन में कैद हो जाते थे। कुछ लोग झरने के जल में स्नान का आनंद ले रहे थे। इस दौरान हम अपने सहयात्रियों से भी घुल-मिल गए थे।

पचमढ़ी की पांच मढि़यां

बी फाल से हम करीब दो घंटे बाद चले। वहां से चल कर हमारी जीप पांडव गुफा पर रुकी। यहां पांच गुफाओं का एक समूह है। ऐसा माना जाता है कि पांडवों ने अपने वनवासके दौरान कुछ अवधि इन गुफाओं में बिताई थी। इन पांच गुफाओं के आधार पर ही इस स्थान का नाम भी पचमढ़ी पड़ा है। इसमें पच वस्तुत: पंच का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है पांच और मढ़ी का अर्थ है कुटी। कहा जाता है कि पांडवों ने इन्हीं गुफाओं में अपना बसेरा बनाया था। ऊंचाई पर स्थित इन गुफाओं तक पहुंचने के लिए सीढि़यां बनी हैं। प्राचीन काल में रेतीली चट्टान में अपने-आप बन गई इन गुफाओं को आज बाहर से ही देखा जा सकता है। आम पर्यटकों द्वारा ऐतिहासिक स्थलों पर नाम लिखने या दीवारों का सौंदर्य बिगाड़ने की प्रवृत्ति और गंदगी से बचाने के लिए ही इन्हें लोहे की ग्रिल से बंद कर दिया गया है। गुफाओं के सामने एक पार्क है। ऊपर से इस विस्तृत पार्क व आसपास का दृश्य अत्यंत मनोहारी लगता है। गुफाओं के ऊपर पाए गए स्तूप के अवशेषों से पता चलता है कि चौथी-पांचवीं शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं ने इनका प्रयोग बौद्ध मठ के रूप में भी किया था।

एक अजूबा प्रकृति का

पचमढ़ी में प्रकृति का ही बनाया हुआ एक ऐसा अजूबा भी है, जिसे देख पर्यटकों को अचरज होता है। इसका नाम है हांडी खोह अर्थात अंधी खोह। यह लगभग 300 फुट गहरी कगार है, जिसके दोनों ओर की चट्टानें किसी दीवार के समान सीधी खड़ी हैं। इन दीवारों पर हरीतिमा का साम्राज्य है। रेलिंग के सहारे खड़े सैलानी अपनी आंखों से तो खोह की गहराई का अनुमान नहीं लगा पाते, लेकिन यदि वे उसमें कोई पत्थर आदि फेंकते हैं तो उसके तलहटी तक पहुंचने की आवाज काफी देर बाद सुनाई पड़ती है। दंतकथा है कि इस खोह में एक विशाल नाग रहता था और उसके कारण लोगों का आना-जाना मुश्किल था। ऋषियों ने भगवान शिव को अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने अपने त्रिशूल से ऐसा प्रहार किया कि वह चट्टानों के मध्य कैद हो गया। त्रिशूल के उसी प्रहार से यह खोह बन गई थी।

अंधेरी बंद गुफा में

हांड़ी खो से आगे बढ़े तो हम महादेव गुफा देखने पहुंचे। महादेव गुफा सदियों से शिवभक्तों की आस्था का केंद्र है। लगभग 40-45 फुट लंबी और करीब 15 फुट चौड़ी इस गुफा में एक शिवलिंग तथा भगवान शंकर की एक प्रतिमा है। इस गुफा से कई मिथक जुड़े हैं। गुफा में एक लंबा सा कुंड है। कहते हैं शिवलिंग के तेज को शांत रखने के लिए उस पर निरंतर जल की बूंदें गिरती रहनी चाहिए। शिव के तेज का यह भान शायद प्रकृति को भी है और इसीलिए इस गुफा में प्रकृति ने स्वयं यह व्यवस्था कर दी है। यहां प्राकृतिक रूप से लगातार खनिज जल रिसता रहता है, जिसकी बूंदें शिवलिंग पर तथा जलकुंड में गिरती रहती हैं। यहां पास ही में कुछ छोटी दुकानें भी हैं। महादेव गुफा से कुछ दूर गुप्त महादेव नामक एक अत्यंत संकरी गुफा है। लगभग 40 फुट लंबी इस गुफा में एक बार में एक ही व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। अंदर कुछ खुला सा स्थान है जहां शिवलिंग व गणेश प्रतिमा स्थित है। वहां सूर्य का प्रकाश तनिक भी नहीं पहुंचता। अंदर कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था है। गुफा के बाहर हनुमान जी की भी एक प्रतिमा है।

धूप के गढ़ में

वहां से वापस आते हुए मार्ग में प्रियदर्शनी व्यू पाइंट है। यह एक ऐसा स्थान है जहां से दिखाई देते दिलकश नजारे सैलानियों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। पहले इस स्थान को फोर्सिथ प्वाइंट कहा जाता था। दरअसल 1857 में कैप्टन फोर्सिथ इस स्थान पर आया था। तब इस प्वाइंट से नजर आती नैसर्गिक आभा ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने पचमढ़ी को एक सैरगाह का दर्जा दिलवाया। यहां से चौरागढ़ एवं महादेव पहाडि़यों के शिखर स्पष्ट दिखाई देते हैं। वहां से जब हमने प्रस्थान किया तो शाम होने को थी।

ड्राइवर ने जीप की गति काफी तेज कर दी थी। उसका कहना था कि शाम होने से पहले हमारा धूपगढ़ पहुंच जाना जरूरी है। पचमढ़ी की परिधि में सतपुड़ा पर्वतमाला का सर्वोच्च शिखर है- धूपगढ़। यह समुद्रतल से करीब 4430 फुट की ऊंचाई पर है। कहते हैं सूर्य की किरणें सुबह सबसे पहले इस शिखर को ही स्पर्श करती हैं। इस शिखर पर प्रतिदिन लगभग 12 घंटे सूर्य का प्रकाश रहता है। शायद इसीलिए इसे धूपगढ़ कहते हैं। हम शाम होने से पूर्व ही वहां पहुंच गए। धूपगढ़ से नजर आते दृश्य को देखने के बाद हम बिलकुल ठीक-ठीक समझ गए कि ड्राइवर इतनी तेज गति से जीप क्यों चला रहा था। अगर उसने ऐसा न किया होता तो शायद हम इस अद्भुत दृश्य से वंचित रह जाते।

संध्याकाल में जब सूर्य की किरणें यहां के पहाड़ों की बलुआ चट्टानों पर पड़ती हैं तो सूर्य का प्रकाश पल-पल बदलते विभिन्न रंगों में प्रतिबिंबित होता है। यही सब देखने के लिए यहां शाम होते ही सैलानियों का जमघट लगना शुरू हो जाता है। क्षितिज पर फैले रंग सुर्ख पड़ने लगते हैं और दिन भर उष्मा बिखेरता सूर्य जैसे थककर क्षितिज की ओर बढ़ने लगता है। सूर्यास्त का यह लुभावना दृश्य पर्यटकों को बहुत भाता है। प्रकृति की दिनचर्या के इस दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए हर कोई बेताब था। काफी देर तक हम इस दृश्य को ठगे से देखते रहे और जब धुंधलका हो गया तो हम अपनी जीप की ओर बढ़ चले।

अवशेष औपनिवेशिक दौर के

पचमढ़ी में औपनिवेशिक काल की याद दिलाने वाले कई चिह्न आज भी मौजूद हैं। इनमें प्रमुख हैं उस दौर में बने गिरजाघर। अगले दिन सुबह हम पहले रोमन कैथोलिक चर्च देखने गए। सन् 1892 में निर्मित यह गिरजाघर फ्रेंच और आयरिश कला का बेहतरीन नमूना है। खूबसूरत रंगीन बेल्जियम कांच से जड़ी खिड़कियां इसका विशेष आकर्षणहैं। इसके निकट ही एक पुरानी कब्रगाह भी है, जो चर्च से भी अधिक पुरानी है। एक कब्र के पत्थर पर लिखी 1859 की तारीख इस बात का प्रमाण दे रही थी। पचमढ़ी में एक क्राइस्ट चर्च भी है। यह एक छोटा सा लेकिन बेहद सुंदर गिरजाघर है। चर्च के अ‌र्द्धवृत्ताकार गुंबद पर एंजेल्स यानी फरिश्तों के चेहरों की मोहक आकृतियां बनी हुई हैं। इस चर्च की दीवारों में भी आकर्षक स्टैंड ग्लास पैन जड़े हैं, जो उस दौर में यूरोप से मंगवाए गए थे। सूर्य का प्रकाश जब इन शीशों से छनकर अंदर आता है। तब वहां भड़कीले रंगों का अनोखा माहौल बन जाता है।

राजेंद्रगिरि नामक स्थान पर हमें हर तरफ प्रकृति की मनोरम छटा नजर आ रही थी। लगभग 3800 फुट ऊंचे इस स्थल पर एक सुंदर वाटिका भी है। गाइड ने हमें बताया कि यह स्थान स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बेहद प्रिय रहा है। बाद में देश के चौथे राष्ट्रपति वी.वी. गिरि भी इस स्थान पर आए थे और उन्हें भी यह जगह बेहद पसंद आई थी। इसीलिए इस स्थान का यह नाम रखा गया था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा लगाया गया वटवृक्ष यहां आज विशाल रूप ले चुका है।

क्रीड़ाएं जल की

वहां से हम अप्सरा विहार की ओर चल दिए। जिस स्थान पर हमें जीप ने छोड़ा था वहां से करीब डेढ़ किलोमीटर पैदल कच्चे मार्ग पर चलकर हमें अप्सरा विहार तक पहुंचना था। हरे-भरे जंगल से होकर इस मार्ग पर चलना सुखद महसूस हो रहा था। शहरों में कंकरीट के जंगल में भटकने की दिनचर्या से बुरी तरह ऊबे हुए होने के कारण हमारे लिए यह एक नया अनुभव था। जंगल घना तो नहीं था, फिर भी पेड़ों के मध्य से सरसराती शीतल हवा पूरे वातावरण में एक अजीब सी सनसनाहट उत्पन्न कर रही थी। यह एक आदर्श पिकनिक स्पॉट है। यहां एक आकर्षक झरना है, जिसके आगे छोटा सा जलाशय भी है। यह झरना लगभग 15 फुट ऊंचाई से गिर रहा है। कुछ लोग जल में पैर डाले चट्टानों पर बैठकर तो कुछ लोग जलक्रीड़ा कर जलाशय का आनंद लेते रहते हैं। अप्सरा विहार से करीब 15 मिनट का मार्ग तय कर सैलानी रजत प्रपात तक पहुंचते हैं। जिसे सिल्वर फाल भी कहते हैं। वहीं धारा आगे पहुंचकर रजत प्रपात का रूप लेकर 350 फुट नीचे गिरती है। चांदी सी चमकती यह जलधारा आंखों को एक शीतल एहसास प्रदान करती है।

एक ही जलधारा विभिन्न स्थानों पर किस प्रकार अलग-अलग रूप ले लेती है। यह हमें पचमढ़ी में ही देखने को मिला। रजत प्रपात से वापस आते हुए हमें जलराशि के सौंदर्य का एक और आयाम पांचाली कुंड के रूप में देखने को मिला। यह वही जलराशि है जो आगे अप्सरा विहार और रजत प्रपात जैसे मनमोहक रूप ले लेती है। पांचाली कुंड में यह धारा अधिक ऊंचाई से नहीं गिरती, किंतु फिर यह एक नयनाभिराम मंजर प्रस्तुत करती है। इसके लिए थोड़ा ऊंचा-नीचा रास्ता तय करना पड़ता है। वहां से हम रीछगढ़ की ओर चल दिए।

मार्ग में गाइड ने आसन्न दृश्य नामक प्वाइंट भी दिखाया, जहां से दूर तक प्रकृति की सुंदर दृश्यावली नजर आती है। मार्ग में ही हमने वात्सल्य स्मारक भी देखा। रीछगढ़ में एक तीन मुंह वाली प्राकृतिक गुफा भी है, जिसे देख सैलानी अचरज में पड़ जाते हैं। गुफा के अंदर तक जाने के लिए टॉर्च आदि साथ होना जरूरी है। कहते हैं कि कभी इन गुफाओं में भालू-रीछ आदि रहा करते थे। इसीलिए इसका नाम रीछगढ़ पड़ गया। रीछगढ़ से कुछ दूर ही रम्यकुंड भी एक दर्शनीय स्थल है। इस कुंड का निर्माण भी एक छोटे से झरने से हुआ है। यह भी एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है, जहां के शांत वातावरण में पहुंच कर पर्यटक मानो सब कुछ भूल जाते हैं। वहां से वापस आकर हमने ड्राइवर से पचमढ़ी की झील दिखाने का आग्रह किया। झील में नौका विहार की अच्छी व्यवस्था है। हमने शाम तक वहीं नौका विहार का आनंद लिया।

जहां चढ़ाते हैं त्रिशूल

पचमढ़ी की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी चौरागढ़ है। वहां भी शिव को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है। समुद्रतल से 4315 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान पर पहुंचने के लिए पांच किलोमीटर से अधिक पहाड़ी मार्ग पैदल तय करना होता है। सैलानी करीब 1175 सीढि़यां चढ़कर या साथ ही बने कच्चे रास्ते पर चलते हुए चौरागढ़ पहुंचते हैं। मंदिर के नजदीक सीढि़यों के आसपास गड़े त्रिशूल देखकर एक बार तो आश्चर्य होता है। त्रिशूल की कतारों के बाद मंदिर के प्रांगण में त्रिशूल के अंबार देखकर तो सचमुच हैरत होती है। हमने इसका कारण जानना चाहा तो मालूम हुआ कि कई अन्य जगहों की तरह यहां भी श्रद्धालु मनौतियां मानते हैं और मांगी मुराद पूरी होने पर वे परंपरा के अनुसार त्रिशूल चढ़ाते हैं। भक्त अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न आकार के त्रिशूल भगवान शिव को अर्पित करते हैं। इसीलिए यहां छोटे-बड़े हजारों त्रिशूल रखे नजर आते हैं।

सीढि़यां चढ़ते-चढ़ते हम बहुत थक गए थे। अत: मंदिर में दर्शन करने के बाद मंदिर प्रांगण में आ बैठे। वहां से चारों ओर का विहंगम दृश्य अत्यंत मनभावन प्रतीत हो रहा था। दूर जहां तक नजर पहुंच पा रही थी, हरी-भरी निश्चल पहाडि़यां ही दिख रही थीं और सुनाई पड़ रहा था केवल पक्षियों का कलरव। ऐसा शांत और सुरम्य वातावरण भला और कहां मिलेगा। हिमालय की गोद में फैली पर्वत श्रृंखलाओं की तुलना में सतपुड़ा पर्वतमाला में बहुत अंतर नजर आता है। अत्यधिक ऊंचाई पर न होने के कारण यहां कभी बर्फबारी नहीं होती और न बहुत अधिक सर्दी ही पड़ती है। यही कारण है कि सर्दियों में भी यहां की आबोहवा का उतना ही आनंद आता है। इसीलिए इसे हर मौसम के लिए उपयुक्त पर्यटन स्थल माना जाता है। चौरागढ़ से आते-आते हम काफी थक चुके थे। इसलिए हमने सीधे होटल की ही शरण ली।

दुर्लभ जड़ी-बूटियां

अगले दिन जब हम जलावतरण की ओर चले तो ड्राइवर ने हमें पहले ही बता दिया था कि वहां पहुंचने के लिए करीब चार किलोमीटर का मार्ग पैदल ही तय करना पड़ता है। वस्तुत: पैदल चलने से हमें तनिक भी संकोच न था। वैसे भी प्रकृति के संसर्ग में भटकने का आनंद कुछ अलग ही होता है। वृक्षों के झुंड के बीच से गुजरते हुए ऐसा भ्रम होता है मानो प्रकृति ने सैलानियों के भ्रमण के लिए वन गलियारे बना दिए हों। यहां के वनों में अधिकतर साल, जामुन, बांस और महुआ के वृक्ष पाए जाते हैं। इनके अलावा यहां की वन संपदा में बहेड़ा, आंवला, हर्रा, चिरौंजी, गोंद और राल बहुत ही दुर्लभ जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं।

एक घंटे तक वनों में चलते रहने के बाद हम जलावतरण पहुंचे। जलावतरण को डचेस फाल भी कहा जाता है। यह झरना तीन स्तरों पर है। डचेस फाल की खूबसूरती का भी एक अलग ही आलम था। इस प्रपात के सौंदर्य को निहारने के बाद सैलानी जलधारा को पार कर दक्षिण-पश्चिम दिशा में बढ़ते हैं। वहां एक कुंड है। इस कुंड को सुंदर कुंड कहते हैं। यह जम्बुद्वीप धारा से बना एक जलाशय है। जहां तैराकी का लुत्फ भी उठाया जा सकता है।

शिलाओं पर नमूने कला के

पचमढ़ी का एक विशेष आकर्षण शैलाश्रय भी हैं। जिनकी प्रस्तरशिलाओं पर प्राचीन चित्रकला के अनूठे नमूने आज भी विद्यमान हैं। इनमें बहुत से चित्र तो पांचवीं से आठवीं शताब्दी के मध्य आदिवासियों द्वारा बनाए गए हैं, किंतु कई चित्र करीब दस हजार वर्ष पुराने पुरापाषाण काल के कहे जाते हैं। जम्बुद्वीप घाटी के निकट छह शैलाश्रय हैं। इनमें इंसान और पशुओं के साधारण चित्रों के अलावा एक युद्ध के दृश्य का चित्रांकन भी है। अस्ताचल के शैलाश्रयों में रेखाओं द्वारा बनाए गए अनेक चित्र हैं।

उधर अप्सरा विहार के निकट धुआंधार शैलाश्रय में अधिकतर सफेद चित्र हैं। इन चित्रों में धनुर्धारियों का चित्रण प्रमुखता से किया गया है। महादेव हिल के पूर्व में भी एक शैलाश्रय में प्रस्तर चित्रकला के कुछ सुंदर उदाहरण देखे जा सकते हैं। इनके अलावा जटाशंकर के निकट हार्पर केव, भ्रांतनीर, निम्बुभोज, बनियाबेरी आदि स्थानों पर भी इस तरह की रॉक पेंटिंग मौजूद हैं। पचमढ़ी का वानिकी संग्रहालय भी दर्शनीय है। बायसन लॉज में स्थित इस संग्रहालय में यहां के वनों में पाई जाने वाली दुर्लभ तथा लुप्त हो चली वन संपदा के नमूने भी देखे जा सकते हैं। वन विभाग द्वारा संरक्षित इस संग्रहालय में वन्य जीवों से संबंधित जानकारी भी मिलती है। बेशुमार वन संपदा से संपन्न पचमढ़ी के आसपास का वन्य क्षेत्र 1999 में बायोस्फियर रिजर्व क्षेत्र भी घोषित किया जा चुका है।

पंचमढ़ी के दर्शनीय स्थलों की गिनती करें तो एक लंबी सूची बन जाएगी। इसका एहसास हमें तब हुआ जब ड्राइवर ने अगले दिन भी घूमने के क्रम में हमें कई स्थान दिखाने के लिए कहा। इनमें से एक था सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान। इस उद्यान में कई वन्य जीवों को उनके वास्तविक वातावरण में विचरण करते हुए देखा जा सकता है। यहां जंगली भैंसा, नीलगाय, बारहसिंगा, रीछ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, हिरण आदि के अलावा शेर भी नजर आ सकते हैं। पचमढ़ी से 50 किलोमीटर दूर स्थित यह उद्यान लगभग 1472 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला है। सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में पक्षियों की भी अनेक प्रजातियां पाई जाती हैं।

एक दुनिया पाताल में

तामिया नामक स्थान भी अपने अलग सौंदर्य के लिए पर्यटकों को पसंद आता है। यह पचमढ़ी से करीब 50 किलोमीटर दूर है। तामिया की पहाडि़यों से दूर-दूर तक फैले मैदानों का विस्तार भी अत्यंत रमणीक दिखाई पड़ता है। यहां 105 वर्ष पुराना एक रेस्ट हाउस भी है। उधर पातालकोट नामक स्थल तो जैसे पाताल में बसी एक पूरी दुनिया ही है। यह आदिवासीबहुल क्षेत्र है। पचमढ़ी के आसपास आदिवासियों के कुछ और गांव भी हैं, जहां गौंड और कोरकस जनजाति के लोग रहते हैं।

खेती-बाड़ी की दिनचर्या के अलावा आदिवासी नृत्य और गीत इनके जीवन का हिस्सा है। महुआ नामक मादक पेय इनके जीवन का खास अंग है। इसकी मादकता में डूबे बिना तो इनका कोई पर्व या उत्सव पूरा ही नहीं होता। इनके रीति-रिवाज भी कुछ अनोखे होते हैं। जिसका एक उदाहरण तो पचमढ़ी में ही देखने को मिलता है। छोटे से पार्क में एक आम के वृक्ष के नीचे जब हमने कुछ अजीब सी काष्ठ पट्टिका पड़ी देखी तो हमने गाइड से उनके बारे में पूछा। उसने बताया ये पट्टिकाएं आदिवासियों की एक परपंरा का हिस्सा है। ये एक प्रकार के श्रद्धांजलि पट हैं, जो आदिवासियों द्वारा अपने दिवंगत संबंधियों की याद में यहां रखे जाते हैं। उनका मानना है कि इसके बाद ही मृतक की आत्मा को शांति मिलती है। अलग-अलग आकार की इन पट्टियों पर मृतक का नाम, गांव का नाम तथा कुछ आकृतियां उकेरी जाती हैं। पचमढ़ी के अन्य दर्शनीय स्थलों में आइरीन पूल, सांकल डोह, इको प्वाइंट, वनश्री विहार, त्रिधारा, नागद्वार पथरचटा जैसे कई स्थान हैं।

प्रकृति का वैभव विराट

खरीदारी के शौकीन लोगों के लिए यहां मध्य प्रदेश सरकार का मृगनयनी एम्पोरियम महत्वपूर्ण स्थान है। जहां से चंदेरी, महेश्वर, कोसा साडि़यां जूट और चमड़े की वस्तुएं तथा धातुशिल्प के नमूने खरीदे जा सकते हैं। बहुत से पर्यटक यहां से जड़ी-बूटियां आदि भी खरीदते हैं। हालांकि जड़ी-बूटियों की खरीद करना तभी उपयुक्त होगा जबकि आपको स्वयं उनकी अच्छी पहचान हो। जड़ी-बूटियां बेचने वाले लोग यहां जगह-जगह नजर आते हैं। वे यहां के वनों से ही ये चीजें ले आते हैं। पचमढ़ी में ओशो प्रेम तीर्थ ध्यान केंद्र, महर्षि महेश योगी आश्रम तथा प्रजापिता ब्रह्मकुमारी आश्रम भी हैं। शिवरात्रि और नागपंचमी के मौके पर तो पचमढ़ी में शिवभक्तों का तांता ही लग जाता है। उसका कारण है यहां शिव मंदिरों की संख्या तथा यहां 15 दिन तक चलने वाला मेला। उस समय तो यहां लाखों की तादाद में तीर्थयात्री आते हैं। सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी को आज मध्यप्रदेश के कश्मीर की उपमा भी दी जाती है। वास्तव में इस शांत सैरगाह का प्राकृतिक वैभव है भी इतना विराट कि जो भी यहां एक बार आ जाता है, उसके मन में पमचढ़ी के प्रति एक अनुराग उत्पन्न हो जाता है। कुछ ऐसी ही भावना को मन में समेटे हमने पचमढ़ी से प्रस्थान किया।

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