सौंदर्य के साथ आस्था का सफर

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उत्तरांचल की हरी-भरी वादियां सैलानियों को तो आकर्षित करती ही हैं, श्रद्धालुओं के लिए भी इस देवभूमि में आकर्षण के कम कारण नहीं हैं। बद्रीनाथ-केदारनाथ धाम की यात्रा पर अगर आप निकलें तो आस्था के इस सफर के दौरान प्रकृति का निष्कलुष सौंदर्य एक सच्चे हमसफर की तरह हर कदम पर आपके साथ होगा

उत्तरांचल के पहाड़ों में हर तरफ फैली प्रकृति की सुंदरता जिस तरह प्रकृतिप्रेमी सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करती है, वैसे ही यहां के पवित्र देवालय बार-बार श्रद्धालुओं को यहां आने का न्यौता देते हैं। हरे-भरे पहाड़, बर्फ  से ढकी चोटियां, नदियां और झरने तथा कई धर्मस्थलों को समेटे पर्यटन के लिहाज से बेहद संपन्न इस राज्य में प्राकृतिक, धार्मिक और साहसिक पर्यटन का आनंद एक साथ लिया जा सकता है। इन्हीं खूबियों के मद्देनजर हमने उत्तरांचल घूमने का मन बनाया और यात्रा के लिए चुने दो पवित्र धाम- बद्रीनाथ और केदारनाथ। सबसे पहले हम पहुंचे ऋषिकेश। यहीं से शुरू होती है कई तीर्थो की यात्रा।

देवभूमि का दिव्य मार्ग

गढ़वाल यात्रा के लिए ऋषिकेश में एक अलग बस अड्डा है। वहां से तमाम बसें चलती हैं। तीर्थ यात्रा के लिए वहां से ‘यात्रा’ बसें और टैक्सियां भी चलती हैं। इसके अलावा निजी टूर ऑपरेटरों, दिल्ली पर्यटन विकास निगम और गढ़वाल मंडल विकास निगम की ओर से पैकेज टूर भी चलाए जाते हैं। सुबह पांच बजे जब हमारी बस चली तो हल्का-सा उजाला छाने लगा था। आसपास के पहाड़ ऐसे दिखते थे गोया सो रहे हों। लक्ष्मण झूले के पास से होते हुए गंगा के साथ-साथ हमारी बस पहाड़ों पर बढ़ चली। सूरज उगते ही हर तरफ हरियाली दिखने लगी। ढाई घंटे के सफर के बाद देवप्रयाग में अलकापुरी से आती अलकनंदा और  गोमुख से आती भागीरथी के संगम का अनूठा दृश्य हमारे सामने था। देवप्रयाग से ही ये दोनों नदियां मिलकर देव सरिता गंगा का रूप लेती हैं। संगम स्थल पर एक छोटा-सा घाट है। उसके पास ही है रघुनाथ मंदिर। ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर कुल पांच प्रयाग हैं। दरअसल यह पूरा मार्ग कई तीर्थो से होकर गुजरता है।

यात्रियों ने देवप्रयाग में नाश्ता किया। यहां से कुछ स्थानीय लोग भी बस में चढ़े। उत्तरांचल में बसें ही यातायात का प्रमुख साधन हैं। हर छोटे-बड़े गांव या कस्बे से यात्रियों को चढ़ाती और उतारती चलती इन बसों की गति 20 किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक नहीं होती। रास्ते की चढ़ाई-उतराई और घुमावदार सड़कों के कारण बस चलाने में बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। देवप्रयाग से 35 किलोमीटर आगे है गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर। अलकनंदा के तट पर घाटी में बसे इस सुंदर शहर में ही कमलेश्वर महादेव मंदिर है। श्रीनगर से 34 किलोमीटर दूर रुद्रप्रयाग में भी हमें मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम का मनोरम दृश्य दिखा।

यहीं से एक मार्ग केदारनाथ की ओर जाता है। हमें पहले बद्रीनाथ जाना था, इसलिए हमारी बस गोचर होते हुए 31 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग की ओर बढ़ रही थी। पिंडारी ग्लेशियर से आती पिंडारगंगा यहीं अलकनंदा में समा जाती है। यह छोटा-सा पहाड़ी नगर है। कर्णप्रयाग से 22 कि.मी. आगे वह जगह है जहां नंदा देवी पर्वत शिखर की ओर से आती नंदाकिनी अलकनंदा में खो जाती है। हमारा यह सफर रोमांचक था। कभी बस बहुत ऊंचाई पर चल रही होती थी तो कभी एकदम नीचे नदी के निकट। कई जगह भूस्खलन के कारण रास्ता खराब था। वहां बस को पत्थरों पर से होकर निकलना पड़ा। हमारी बस चमोली होते हुए जोशी मठ की ओर बढ़ रही थी।

बर्फ का बुग्याल होना

जोशी मठ, जिसे ज्योतिर्मठ भी कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक है। यहां के मंदिरों में नरसिंह भगवान और मां दुर्गा के मंदिर प्रमुख हैं। यह जगह हिमक्रीड़ा केंद्र औली के कारण भी मशहूर है। औली यहां से मात्र 12 किलोमीटर दूर है। गौरसों बुग्याल तक फैली ये ढलानें सर्दियों में बर्फ से ढकी रहती हैं। गर्मी में यहां हरी-भरी घास फैली होती है। बर्फ से बुग्याल (यानी घास का मैदान) में बदलने और फिर बर्फ हो जाने का यह सिलसिला काफी दिलचस्प है। यहां से हिमालय की कई चोटियां साफ दिखती हैं। जोशी मठ से यहां तक पैदल या रोपवे से आया जा सकता है। एक चाय वाले ने बताया कि यहां से 15 किलोमीटर आगे तपोवन भी एक सुंदर जगह है। वहां गरम जल का एक कुंड भी है।

इस मार्ग का आखिरी प्रयाग है- विष्णु प्रयाग। यहां अलकनंदा से धौली गंगा का मिलन होता है। इसे विष्णु गंगा भी कहते हैं। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ रही थी, ठंड बढ़ने लगी थी। गोविंदघाट, पांडुकेश्वर होकर बद्रीनाथ के पास पहुंचे तो दिन छिपने वाला था। बस रुकते ही हम रेस्ट हाउस की ओर चल पड़े। दिन भर  तो प्राकृतिक दृश्यों में खोए रहने से थकान महसूस नहीं हुई, पर यहां पहुंच जाने पर लगा कि हम काफी थक गए हैं।

नर-नारायण के बीच

समुद्र तल से लगभग 3130 मीटर की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के दाहिने तट पर बसा है बद्रीनाथ। प्राचीन गढ़वाल शैली में बना पवित्र बद्रीनाथ मंदिर नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित है। इसका 50 फुट ऊंचा सिंहद्वार दूर से ही दिखता है। इस मंदिर की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। बाद में गढ़वाल नरेश ने 15वीं सदी में इसका पुनरुद्धार कराया। मंदिर में भगवान विष्णु की श्यामवर्ण की पाषाण प्रतिमा है। मंदिर में पूजा-अर्चना केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण करते हैं, जिन्हें यहां रावल कहते हैं। मंदिर के निकट एक तप्तकुंड है। अलकनंदा की शीतल धारा के तट पर यह गर्म जल का स्त्रोत है। इसमें स्नान के बाद ही मंदिर में प्रवेश करते हैं।

हम जब सुबह मंदिर दर्शन के लिए चले तो सबसे पहले हमें नीलकंठ पर्वत शिखर के दर्शन हुए। दो पहाड़ों के बीच से दिखता यह हिमशिखर सूर्य की किरणें पड़ने से जगमगा रहा था। अलकनंदा पुल पर पहुंचते ही मंदिर के भव्य कलश दिखने लगे। मंदिर में एक बोर्ड पर भगवान की सेवा और पूजा के नियम तथा राशि का विवरण दर्ज था। यह रेट बोर्ड देख कर हमें आश्चर्य हुआ। हमने मंदिर में दर्शन किए औरपूजा की। इसी परिसर में छोटे-छोटे कई और मंदिर भी हैं। हर साल अक्षय तृतीया के दिन मंदिर के पट खुलते हैं। उस समय बड़े जुलूस के साथ भगवान की प्रतिमा यहां लाई जाती है।  भगवान की ज्योति के लिए गढ़वाल और टिहरी की सुहागिनें स्वयं निकाल कर तिल का तेल भेजती हैं।

बद्रीनाथ के आसपास पंचशिला, मानागांव, भीम गुफा, चरणपादुका और वसुधारा आदि भी देखने लायक जगहें हैं। खूबसूरत घाटी में सुहानी सुबह का आनंद लेते हुए हम माना गांव की ओर चल पड़े। तीन-चार किलोमीटर का यह पैदल मार्ग बेहद सुंदर था। रास्ते के आसपास सुंदर खेत थे और जगह-जगह फूलों की झाडि़यां थीं। एक जगह चाय की दुकान पर एक छोटे से बोर्ड पर लिखा था, ‘भारत की आखिरी चाय’। दरअसल भारत-तिब्बत सीमा पर यह अंतिम गांव है।  एक गांववासी ने बताया कि वे यहां मई से अक्टूबर तक ही रहते हैं। इसके बाद बर्फ गिरने लगती है तो नीचे के गांवों में चले जाते हैं। यहां के लोग खेती-बाड़ी करते हैं। आगे का मार्ग भीम गुफा, बासुधारा, सतोपंथ झील और अलकापुरी तक जाता है, जहां सिर्फ ट्रेकिंग के शौकीन ही जाते हैं। वह पूरा दिन हमने बद्री विशाल की पावन नगरी में बिताया। अगले दिन केदारनाथ के लिए चल दिए।

केदारनाथ के लिए गौरीकुंड तक बस से जाना होता है। जिस बस से हमें जाना था उसका नाम था ‘भूख हड़ताल’। एक सहयात्री ने बताया कि पहले बद्रीनाथ, गोपेश्वर, चोपता, उखीमठ मार्ग पर बस नहीं चलती थी। लोगों ने जब भूख हड़ताल शुरू की तब जाकर बस चलनी शुरू हुई, इसीलिए लोग इसे ‘भूख हड़ताल’ कहने लगे। गोपेश्वर निवासी उन सज्जन ने ही हमें यह भी जानकारी दी कि बद्रीनाथ के कुल पांच मंदिर हैं, जिन्हें पंचबद्री कहते हैं। ये मंदिर हैं आदि बद्री, भविष्य बद्री, योग बद्री, वृद्ध बद्री और बद्री विशाल। एक बार फिर हम प्राकृतिक नजारों से भरे पहाड़ी मार्ग पर चल रहे थे। कहीं ऊंचाई से गिरते झरने अलकनंदा में समा रहे थे तो कहीं पिघलते ग्लेशियर नदी की ओर सरक रहे थे।

गोपेश्वर पहुंचकर बस लंच के लिए रुकी। जिला मुख्यालय होने के कारण गोपेश्वर व्यस्त शहर है। यहां एक प्राचीन शिव मंदिर है। गोपेश्वर-गौरीकुंड मार्ग पर स्थित सबसे ऊंचा स्थान चोपता दूर तक फैले बुग्याल यानी घास के ढलवां मैदानों के लिए प्रसिद्ध है। गढ़वाल का सबसे ऊंचा शिव मंदिर तुंगनाथ यहां से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर है।

उखीमठ, गुप्तकाशी, सोनप्रयाग होते हुए बस गौरीकुंड पहुंची तो शाम हो चुकी थी। शाम होते ही मौसम काफी ठंडा हो गया था। आगे की यात्रा सुबह शुरू करनी थी। इसलिए यात्री ठहरने की व्यवस्था करने लगे। यहां एकमात्र आकर्षण गरम जल का एक प्राकृतिक स्त्रोत गौरीकुंड है। इसमें स्नान करके ही यात्री केदारनाथ के लिए प्रस्थान करते हैं। यहां से केदारनाथ तक 14 किलोमीटर का पैदल मार्ग है। घोड़े या पालकी से भी यात्रा की जा सकती है। पैदल यात्रा के लिए सुबह जल्दी चल देना ठीक रहता है। इससे इस कठिन रास्ते में आराम करने के लिए भी  पर्याप्त समय मिल जाता है।

नदी की धारा का संगीत

सुबह जब हमने यात्रा शुरू की तो आकाश एकदम साफ था। मौसम बिगड़ने का कोई अंदेशा नहीं था। नीचे गहराई में बहती मंदाकिनी के प्रचंड वेग का शोर पा‌र्श्व संगीत की तरह हमारा साथ दे रहा था। दर्शनीय प्राकृतिक छटा को हम कैमरे में कैद करते आगे बढ़ रहे थे। गौरीकुंड से सात किलोमीटर आगे  छोटा सा कस्बा है, रामबाड़ा। यहां से आगे का मार्ग और भी सुंदर है। इस रास्ते पर सामने की पहाडि़यों पर फैले घास के मैदानों में भेड़ों के झुंड दिखे। आगे गरुड़ चट्टी पहंुचने पर बर्फ से ढके पहाड़ नजर आने लगते हैं। उसके कुछ देर बाद ही केदारनाथ मंदिर का गुबंद और उस पर लहराते ध्वज की एक झलक दिखती है।

वास्तुकला का नायाब नमूना

केदारनाथ पर्वत श्रृंखला के सुमेरु पर्वत और अन्य हिमशिखरों के साये में फैली मनोरम घाटी के बीच स्थित है-केदारनाथ का पवित्र मंदिर। बारह ज्योतिíलंगों में एक यह ऐतिहासिक मंदिर वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। कहते हैं यह मंदिर पांडवों ने बनवाया था, जिसका जीर्णोद्धार आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने किया। भगवान शिव को समर्पित इस देवालय में धड़ के आकार की शिला का पूजन किया जाता है। मंदिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने नंदी की पाषाण मूर्ति और प्रांगण में पार्वती, लक्ष्मी और पांडवों की छोटी-छोटी प्रतिमाएं हैं। इसके पीछे ही आदि शंकराचार्य की समाधि है। लगभग 3580 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान पर ठंड बहुत अधिक थी। ऊनी कपड़ों से पूरी तरह लैस होकर हम रेस्ट हाउस से मंदिर दर्शन के लिए  निकल पड़े। मंदिर के सामने पहंुचे तो मन एक बार फिर श्रद्धा और भक्ति से भर उठा। शाम के वक्त पर्वतों के पीछे ढलते सूर्य का नारंगी रंग आकाश से परावर्तित होकर हिमशिखरों में एक अनोखा रंग भर रहा था। उसके सामने था स्लेटी रंग के पत्थरों से बना यह भव्य मंदिर।

अगली सुबह हम दक्षिण-पूर्व में स्थित भैरव शिला देखने चल दिए। एक पहाड़ी पर स्थित यह शिला लगभग एक किलोमीटर दूर है। सुबह रश्मियों से चमकती पर्वत श्रृंखला के सामने फैली मंदाकिनी घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। वहां बैठे पुजारी ने बताया कि केदारनाथ के भी कुल पांच मंदिर हैं। अन्य चार मंदिर हैं मद्महेश्वर, रुद्रनाथ, तुंगनाथ और कल्पेश्वर। भैरवशिला से हम जल्दी ही वापस आ गए। क्योंकि हमें गांधी सरोवर जाना था।

बर्फ से ढका अस्तित्व

ट्रेकिंग के शौकीन लोगों के लिए यहां दो ठिकाने हैं। वासुकी ताल सात किलोमीटर दूर है तो गांधी सरोवर दो किलोमीटर। वासुकी ताल के मार्ग पर जमी बर्फ अभी पूरी तरह नहीं पिघली थी। इसलिए वहां का मार्ग बंद था, लेकिन गांधी सरोवर देखने की लालसा हम रोक नहीं सके। प्रकृति के सौंदर्य में खोए हम कब सरोवर पहंुच गए, पता ही नहीं चला। चारों ओर बर्फ की चादर फैली हुई थी। सरोवर के जल की सतह पर भी बर्फ की चादर फैली हुई थी।

हमें वहां पहुंचे अधिक देर नहीं हुई थी कि अचानक वहां की निस्तब्ध शांति को भंग करती बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। अब तक की यात्रा में मौसम ने हमारा साथ दिया था, लेकिन यहां मौसम का मिजाज बिगड़ता नजर आ रहा था। कुछ ही देर में बूंदाबांदी शुरू हो गई। हमने अपने बैग से रेनशीट निकाली और तुरंत वापस चल दिए। वर्षा तेज होने के साथ ही तेज चलती हवा शीत लहर जैसी लगने लगी। रेनशीट से पूरी तरह बचाव नहीं हो पा रहा था और वर्षा के पानी से हमारे कपड़े भीगने लगे। तभी कुछ दूर पर एक झुकी-सी चट्टान नजर आई। वह उस वक्त हमारे लिए प्रकृति द्वारा बनाई शरण स्थली जैसी लगी। हम भागकर उसके नीचे आ बैठे। कपड़े भीग जाने से हम ठिठुर रहे थे, लेकिन बरसात थमने का नाम नहीं ले रही थी। पहाड़ी मिट्टी और वनस्पति की सुगंध हर तरफ फैली थी। प्रकृति के कैनवास पर बनते-बदलते दृश्यों का हम आनंद जरूर ले रहे थे, पर दिक्कत में फंसने का भय भी हम पर छाने लगा था। दो घंटे बाद बरसात रुकी तो हमने राहत की सांस ली। फिसलन भरे रास्ते से धीरे-धीरे हम वापस केदारनाथ पहंुचे। इस भीगी-सी सर्द शाम ने हमारा सफर और रोमांचक बना दिया था।

अगले दिन गौरीकुंड के लिए प्रस्थान करने से पहले हम एक बार फिर मंदिर के दर्शन करने गए। उस समय वहां बहुत भीड़ थी। दो व्यक्ति अपने कंधों पर एक डोली उठाए घूम रहे थे। रेशमी कपड़ों और झालरों से सजी यह डोली बहुत सुंदर लग रही थी। दरअसल विभिन्न तिथियों पर पास के गांवों के लोग अपने कुलदेवता का डोला लेकर यहां आते हैं। भक्त लोग इस डोली में भी अपनी भेंट चढ़ा रहे थे। मंदिर के दर्शन कर हम वापस चल दिए। मार्ग में नीचे उतरते हुए अधिक थकान न हुई और दोपहर तक हम गौरीकंुड पहंुच गए। दोपहर बाद वहां से ऋषिकेश की बस नहीं मिलती, इसलिए हमने श्रीनगर तक की बस ली। श्रीनगर पहुंचे तो वहां हमें रेस्टहाउस के कमरे में स्थान नहीं मिला, लेकिन डोरमेट्री में बेड मिल गए।

दिक्कतों के दंश सहती जिंदगी

प्राकृतिक सौंदर्य के मामले में उत्तरांचल जितना समृद्ध है, यहां के लोगों का जीवन उतना ही मुश्किलों से भरा हुआ है। विकास की जो थोड़ी-बहुत संभावनाएं अभी यहां दिखती हैं, वह भी इसी प्राकृतिक संपदा और पर्यटन के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं। यहां के लोगों का खानपान, पहनावा आदि एकदम सादा है और ऐसा ही सरल इनका स्वभाव है। ऊंचाई पर बसे गांवों में तो लोगों का जीवन बेहद कठिन है।  उन्हें मीलों पैदल चलकर बड़े नगरों तक आना पड़ता है। शीतकाल में तो उन्हें नीचे के गांवों में ही रहना पड़ता है। क्योंकि बर्फ गिरने के कारण खेती भी नहीं हो पाती और जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। शीतकाल में बद्रीनाथ और केदारनाथ के पट भी बंद हो जाते हैं। उन दिनों बद्रीनाथ जी की पूजा जोशीमठ और केदारनाथ जी की उखीमठ में होती है। इसीलिए यह यात्रा अप्रैल-मई से अक्टूबर-नवंबर तक चलती है। मानसून के दिनों में यहां अक्सर भूस्खलन के कारण यात्रा में रुकावट आती है। इसलिए उस दौरान यात्रा से बचना चाहिए। जब भी यात्रा करनी हो ऊनी कपड़े जरूर रखने चाहिए। क्योंकि हजारों फुट की ऊंचाई पर स्थित इन तीर्थो पर कभी-कभी भयावह ठंड रहती है। देवलोक के ही समान इन पावन तीर्थो पर भी आकर मनुष्य को अपनी लघुता का अहसास होता है। विशाल प्रकृति बांहें पसारे, बिना भेदभाव के सबका स्वागत करती है। यहां पहुंच कर आज भी ऐसा अहसास होता है जैसे वातावरण में वेदों की ऋचाएं अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ गूंज रही हों।

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