मरुस्थल में वसंत का दौर नागौर

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प्राचीन किले, महल, इमारतें आदि दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त राजस्थान में वर्ष भर चलते रहने वाले कई त्योहारों, महोत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चलते देशी और विदेशी पर्यटकों का आना-जाना हमेशा बना रहता है। इनमें एक महत्वपूर्ण उत्सव है ‘नागौर उत्सव’, जो मरुभूमि में वसंत ऋतु के आगमन पर आयोजित किया जाता है। इस मौके पर बहुत बड़ा पशु मेला भी यहां लगता है। नृत्य और संगीत से सराबोर शाम, हस्तशिल्प मेला, ऊंटों की दौड़ और उनकी सजावट की प्रतिस्पर्धा, नागौरी बैलों और घोड़ों की दौड़, कई अन्य खेल प्रतिस्पर्धाएं, राव वीर अमर सिंह राठौड़ की वीरगाथाओं का कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शन, राजस्थानी दुलहन वस्त्र प्रतिस्पर्धा आदि नागौर उत्सव के विशेष आकर्षण हैं। इसी कड़ी में पर्यटन विभाग ने डे़जर्ट ट्रेल हॉर्स सफारी को भी हाल में जोड़ दिया है। इसके अंतर्गत घोड़ों पर सवार होकर मरुस्थल के दूरदराज क्षेत्रों और गांवों में जाकर वहां के जीवन का अनुभव करना शामिल होता है। हॉर्स सफारी का यह सिलसिला उत्सव के अलावा अन्य समय में भी पर्यटकों के लिए चलता रहता है। इसकी वजह यह है कि विदेशी पर्यटक यहां पूरे साल आते रहते हैं।

रेगिस्तान का कोमल पक्ष

थार मरुस्थल के नागौर उत्सव में शामिल होने और दर्शनीय स्थलों का लुत्फ लेने के लिए हम मार्च के महीने में नागौर पहुंचे थे। दिल्ली से रात को ट्रेन से चलकर सूर्योदय से पहले मेड़ता रोड स्टेशन पहुंचे। यहां से नागौर 82 किमी दूर है। यह सफर हमने बस से तय किया। कुछ दूर तक ऊबड़-खाबड़ सड़क पर हिचकोले खाते राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 89 पर पहुंचे तो बस की गति बढ़ गई। सड़क के दोनों ओर बालू-मिट्टी और दूर-दूर तक दिखते खेजड़ी के वृक्षों की हरियाली हर किसी की कल्पना को जगा रही थी। खेजड़ी को शमी भी कहा जाता है। राजस्थान में विजयादशमी पर खेजड़ी वृक्षों की पूजा की जाती है। ऊंटों को चारा तथा मनुष्य को फली के रूप में दो प्रकार की सब्जियां इस पेड़ से मिलती हैं। यद्यपि जैसलमेर जैसे सूखे और रुखे क्षेत्र में भ्रमण कर चुके पर्यटक को यह क्षेत्र मरुभूमि का कोमल पक्ष लगता है। फिर भी मरुस्थल आखिर मरुस्थल ही है।

खारे पानी की झीलें

इतिहास के पन्नों की तरह सब ओर बिखरी रेतीली मिट्टी की परतें देख राजस्थान की गौरवशाली गाथाएं याद हो आई थीं। हम नागौर पहुंच चुके थे। पर्यटन विकास निगम ने वहां एक अस्थाई पर्यटक गांव बनाया था। हाइवे के किनारे तथा मेला मैदान के बिल्कुल समीप बने इस गांव में ही हमें ठहरना था। यहां का शांत और प्रदूषणमुक्त वातावरण हमें भा गया।

इसके आसपास के पर्यटन स्थलों में नागौर का किला, तारकिन की दरगाह, वीर अमर सिंह राठौड़ की छतरी, नागौर के समीप दधीमति माता का मंदिर, खींवसर किला, मीरा बाई की जन्मस्थली मेड़ता, कुचामन किला, हवेलियां आदि हैं। यह सब हमें तीन दिन में देखना था। भंवाल भी यहां से निकट ही है। वहां ब्रह्माणी माता का अत्यंत प्राचीन मंदिर है। यहीं डीडवाना क्षेत्र में खारे पानी की झीलें हैं, जहां नमक बनाया जाता है।

राजस्थान के मध्य भाग में बसे नागौर क्षेत्र की सीमाएं बीकानेर, चुरु, सीकर, जयपुर, अजमेर, पाली एवं जोधपुर से लगती हैं। गर्मियों में यहां तापमान 49 डिग्री से. तक चला जाता है और शीतकाल में शून्य तक गिर जाता है।

इतिहास के पन्नों में

नागौर का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप ठीक से समझ लिया जाए तो भ्रमण और उत्सव का आनंद बढ़ जाता है। 1947 तक भारतीय संघ में विलय से पहले कश्मीर व हैदराबाद के बाद तीसरी सबसे बड़ी रियासत मारवाड़ थी। नागौर मारवाड़ का ही हिस्सा है और मारवाड़ थार मरुस्थल का। यहां पानी की किल्लत हमेशा रही है, अत: हरियाली भी मुश्किल से ही दिखती है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में दूर-दूर तक नागवंश का राज्य फैला था। इसी आधार पर इसका नाम नागौर पड़ा। इस क्षेत्र का जिक्र महाभारत में भी आता है। मध्यकाल के तमाम शासकों ने इसे सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना। नागौर सहित मारवाड़ के बड़े भाग पर चौहानों ने राज्य किया। 12वीं सदी में मोहम्मद गोरी ने यहां आधिपत्य जमाया। चौदहवीं शताब्दी से राठौड़ों तथा सोलहवीं सदी से मुगल बादशाह अकबर ने यहां राज्य किया। फिर जयपुर के कच्छवाहा राजपूतों, मेवाड़ के गहलोतों तथा मारवाड़ के राठौड़ राजाओं के अधीन भी यह क्षेत्र रहा। अंतत: 1626 से आगे स्वतंत्रता प्राप्ति तक यह क्षेत्र जोधपुर के राजाओं के पास रहा। वैसे इस क्षेत्र में सभ्यता की हलचल ताम्र सभ्यता से भी पहले पाषाणकाल में होने का अनुमान लगाया जाता है। काफी पहले यहां लूजी नदी के किनारे पत्थर के तमाम उपकरण मिल चुके हैं।

अतीत की धरोहरें

अलग-अलग हुकूमतों ने यहां अपनी छाप छोड़ी। फलत: नागौर और इसके निकट के क्षेत्रों में किले, महल, मंदिर, दरगाह, मसजिद, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर के रूप में खड़ी कलात्मक छतरियां आदि यहां की समृद्ध संस्कृति का संकेत देते हैं। प्राचीन स्मारक, महल, हवेलियां, जाली, झरोखे आदि वास्तु और शिल्पकला के उत्कृष्ट जीवंत उदाहरण हैं और पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी।

पहले दिन हम ताऊसर गांव में राव जनरल अप्पाजी सिंधिया की छतरी देखने पहुंचे। अमर सिंह राठौड़ के निधन के बाद उनकी एक रानी ने राज्य संभालने के लिए अप्पाजी को बुलाया था। कुछ समय बाद एक षड्यंत्र में अप्पा जी की हत्या कर दी गई थी। ताऊसर का अर्थ है पानी वाला स्थान। किसी समय यहां इतनी वर्षा होती थी कि घरों में पानी आ जाता था। घर खाली करने पड़ते थे। गांव के सरपंच जीतमल ने बताया कि इस भूमि पर बहुत युद्ध हुए थे। वर्षा के बाद यहां की जमीन सफेद नजर आती है। हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़े मिलते हैं। ये हड्डियां मारे गए सैनिकों की मानी जाती हैं।

अब हम 42 किमी दूर खींवसर किले की ओर बढ़े। जोधपुर रोड पर स्थित 500 वर्ष पुराना खींवसर किला मरुस्थल के मध्य में है। इस किले को अब हेरिटेज होटल में बदल दिया गया है। यहां आधुनिक सुविधाओं के साथ प्राचीन ठाटबाट भी देखने को मिलता है। खींवसर गांव के लोग शिल्पकला में दक्षता के लिए प्रसिद्ध हैं। समीप ही हैं रेत के टीले, जो तेज हवाओं के साथ बिगड़ते-बनते रहते हैं।

मेला और रंगारंग शाम

दोपहर के भोजन के बाद शाम को हम पशु मेला देखने गए। वहां की भीड़ देखकर यह भ्रम जाता रहा कि क्षेत्र की आबादी कम है। इस भीड़ की वजह नृत्य और संगीत को समर्पित वह शाम थी, जिसमें अपनी प्रस्तुति देने इला अरुण आने वाली थीं। इला व अन्य कलाकारों ने अंधेरी रात को रंगों से भर दिया। गीत-संगीत की आवाज इतनी ऊंची थी कि मर्यादाओं में सिमटी राजस्थानी बहुओं ने घर बैठे इला को सुन लिया होगा। बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करना पुलिस के लिए चुनौती भरा काम था।

पशु मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, गुजरात व उत्तर प्रदेश के लोग भी अपने पशुओं सहित भाग लेते हैं। बेचने वाले लोगों और खरीदारों की भीड़ के चलते यहां ह़फ्ते भर हलचल बनी रहती है। मेले में गाय, बछड़े, बैल, ऊंट और घोड़े खूब होते हैं। बीकानेरी ऊंट तथा काठियावाड़ी और मालियान घोड़ों की नस्लें सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।

उत्सव का गौरव

दूसरे दिन हमने वीर राव अमर सिंह राठौड़ की छतरी देखी। यहां उनके जीवन पर कठपुतलियों का शो भी देखने को मिला। ग्यारह बजे थे। नागौर से 120 किमी दूर कुचामन किले की ओर हम बढ़ चले। यह दुर्ग राजस्थान के दुर्गम किलों में से एक है। मध्यकाल में इस किले के ठाकुर मारवाड़ में अच्छी प्रतिष्ठा रखते थे। किले में एक टकसाल थी, जहां जोधपुर नरेश की तरफ से सोने और चांदी के सिक्के ढाले जाते थे। कुचामन दुर्ग में भव्य महल शस्त्रागार, रनिवास, अन्न भंडार व पानी के विशाल टांके (टंकियां), शीश महल, हवा महल, अस्तबल, ऊंटशाला, हरित शाला, सूर्य मंदिर तथा पानी की नहर दर्शनीय हैं। कुचामन व्यापारियों का गांव है। यहां के सेठों ने बड़ी-बड़ी हवेलियां बनवाई हैं। इनमें अत्यंत सुंदर चित्रकारी है। दिन भर के थके सूरज के दूर क्षितिज पर पहुंचते ही हम कुचामन से विदा ले रहे थे।

इतिहास की साझी दीवारें

तीसरे दिन हमने नागौर किला देखा। लगता था, जैसे इतिहास की साझी दीवारें कुछ बोल रही हैं। यह किला दूसरी शताब्दी ईस्वी में नागों ने बनवाया था। यह मिट्टी से बना था। बाद में इसे चौहानों व अन्य राजाओं ने बनवाया। किले की चारदीवारी के भीतर बने भव्य महल उस काल की समृद्धि दर्शाते हैं। एक कमरे में अमर सिंह राठौड़ का बड़ा चित्र रखा है।

अचरज हो रहा था कि हम ऐसी भूमि पर विचर रहे हैं जिसने कई विभूतियों को जन्म दिया है। प्रसिद्ध कवि वृंद का जन्म मेड़ता में हुआ। उन्होंने डिंगल तथा पिंगल भाषाओं में छोटे-बड़े दस ग्रंथों की रचना की। उनकी अंतिम रचना ‘सत्य स्वरूप’ थी। अकबर के नौ रत्नों में से अबुल फैज और अबुल फजल दोनों भाइयों का जन्म नागौर में ही हुआ था। कहते हैं अकबर के  दरबारी बीरबल भी नागौर जिले में मकराना के गुणावती गांव के रहने वाले थे।

मीरा का जन्म हुआ जहां

दोपहर बाद हमने पर्यटक गांव से विदा ली और चल पड़े मीरा की जन्मस्थली मेड़ता के लिए। मेड़ता हम शाम को पहुंचे। इस भूमि पर पैर रखने से पहले यहां की माटी को मस्तक से लगाने की इच्छा हो रही थी। यही वह भूमि है जहां मीराबाई का जन्म हुआ, जिनके ह़जारों पद आज भी गांव-गांव में गाए जाते हैं। मन ही मन हमने मीरा को प्रणाम किया। पर्यटन विभाग ने उनके जीवन पर आधारित नृत्य नाटिका का आयोजन भी किया था। हम इसे देख भावविभोर हो उठे।

उत्सव का अंतिम चरण देखकर हमने रात्रि भोजन किया। दिल्ली के लिए वापसी सफर मेड़ता से 15 किलोमीटर दूर मेड़तारोड रेलवे स्टेशन से मध्य रात्रि में शुरू होना था। नागौर की यादें बटोर कर हम स्टेशन पहुंच चुके थे।

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